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________________ ३३२ जैन-दर्शन स्वरूप का विश्लेषण करते समय मालूम हो जाएगा कि नैगमादि चार का विषय अर्थ क्यों है, और शब्दादि तीन का विषय शब्द क्यों है ? अर्थनय और शब्दनय के भेद की यह सूझ नई नहीं है । आगमों में इसका उल्लेख है । नय के भेद : नय की मुख्य दृष्टियाँ क्या हो सकती हैं, यह हमने देखा । अब हम उसके भेदों का विचार करेंगे । प्राचार्य सिद्धसेन' ने लिखा है कि "वचन के जितने भी प्रकार या मार्ग हो सकते हैं, नय के उतने ही भेद हैं । जितने नय के भेद हैं, उतने ही मत हैं।" इस कथन को यदि ठीक माना जाय तो नय के अनन्त प्रकार हो सकते हैं । इन अनन्त प्रकारों का वर्णन हमारी शक्ति की मर्यादी के बाहर है । मोटे तौर पर नय के कितने भेद होते हैं, यह बताने का प्रयत्न जैनदर्शन के आचार्यों ने किया है । यह तो हम देख चुके हैं कि द्रव्य और पर्याय में सारे भेद समा जाते हैं । द्रव्य और पर्यायों को अधिक स्पष्ट करने के लिए उनके अवान्तर भेद किये गये हैं। इन भेदों की संख्या के विषय में कोई निश्चित परम्परा नहीं है। जैनदर्शन के इतिहास को देखने पर हमें एतद्विषयक तीन परम्पराएं मिलती हैं । एक परम्परा सीधे तौर पर नय के सात भेद करती है । ये सात भेद हैं-नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत । आगम और दिगम्बर ग्रन्थ इस परम्परा का पालन करते हैं। दूसरी परम्परा नय के छः भेद मानती है । इस परम्परा के अनुसार नैगम स्वतन्त्र नय नहीं है। प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने इस परम्परा की स्थापना की है। तीसरी परम्परा तत्त्वार्थ सूत्र और उसके भाष्य की है। इस परम्परा के अनुसार मूलरूप में नय के पाँच भेद हैं-नैगम, संग्रह, व्यवहार,ऋजुसूत्र औरशब्द। इनमें से १-जावइया वयणवहा, तावइया चेव होंति नयवाया। जावइया रणयवाया, तावइया चेव परसमया ॥ -सन्मति तर्क प्रकरण ४७ २-स्थानांग सूत्र, ७१५५२, तत्त्वार्थराजवार्तिक ११३३ ३-सन्मति तर्क में नय प्रकरण ४-१।३४-३५
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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