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________________ जैन-दर्शन किसी का मत है कि मनुष्य ने जब प्रकृति के अद्भुत कार्य देखे तब उसके मन में एक प्रकार की विचारणा जाग्रत हुई। उसने उन सब कार्यों के विषय में सोचना प्रारम्भ किया । सोचते-सोचते वह उस स्तर पर पहुँच गया, जहाँ श्रद्धा का साम्राज्य था । यहीं से धर्म की विचारधारा प्रारम्भ होती है। ह्य म इस मत का विरोध करता है। उसकी धारणा के अनुसार धर्म की उत्पत्ति का मुख्य आधार प्राकृतिक कार्यों का चिन्तन नहीं, अपितु जीवन की कार्य-परम्परा है। मानव-जीवन में निरन्तर आने वाले भय व आशाएँ ही धर्म की उत्पत्ति के मुख्य कारण हैं। जीवन के इन दो प्रधान भावों को छोड़कर अन्य कोई भी ऐसा कार्य या व्यापार नहीं, जिसे हम धर्म की उत्पत्ति का प्रधान कारण मान सकें। ह्य म की इस मान्यता का विरोध करते हुए किसी ने केवल भय को ही धर्म की उत्पत्ति का कारण माना । इस मान्यता के अनुसार भय ही सर्वप्रथम कारण था, जिसने मानव को भगवान् की सत्ता में विश्वास करने के लिए विवश किया। यदि भय न होता तो मानव एक ऐसी शक्ति में कदापि विश्वास न करता, जो उसकी सामान्य पहुँच व शक्ति के बाहर है । कान्ट ने इन सारी मान्यताओं का खण्डन करते हुए इस धारणा की स्थापना की कि धर्म का मुख्य आधार न आशा है, न भय है और न प्रकृति के अद्भुत कार्य ही ? धर्म की उत्पत्ति मनुष्य के भीतर रही हुई उस भावना के आधार पर होती है जिसे हम नैतिकता (Morality) कहते हैं । नैतिकता के अतिरिक्त ऐसा कोई आधार नहीं, जो धर्म की उत्पत्ति में कारण बन सके । जर्मन के दूसरे दार्शनिक हेगल ने कान्ट की इस मान्यता को विशेष महत्त्व न देते हुए इस मत की स्थापना की कि दर्शन और धर्म दोनों का आधार एक ही है । दर्शन और धर्म के इस अभेदभाव के सिद्धान्त का समर्थन क्रोस आदि अन्य विद्वानों ने भी किया है। हेगल के समकालीन दार्शनिक श्लैरमाकर ने धर्म की उत्पत्ति का आधार मानव की उस भावना को माना, जिसके अनुसार मानव अपने को सर्वथा परतंत्र (A bsolutely dependent) अनुभव करता है। इसी ऐकान्तिक परतत्र भाव के आधार पर धर्म व ईश्वर की उत्पत्ति
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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