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स्याद्वाद
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करना स्वात्मा का ग्रहण कहलाता है । यह प्रयोजन भाषा के विविध प्रयोगों में झलकता है । एक शब्द प्रयोजन के अनुसार अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है । प्रत्येक शब्द का मोटे तौर पर चार अर्थों में विभाग
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किया जाता है । इसी अर्थ - विभाग को न्यास कहते हैं । ये विभाग हैंनाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । सामान्य तौर पर किसी का एक नाम रख देना नाम निक्षेप है । मूर्ति, चित्र आदि स्थापना निक्षेप है । भूत या भविष्यत् काल में रहने वाली योग्यता का वर्तमान में श्रारोप करना द्रव्य निक्षेप है । वर्तमान कालीन योग्यता का निर्देश भावनिक्षेप है । इन चारों निक्षेपों में रहने वाला जो विवक्षित अर्थ है वह स्वरूप अथवा स्वात्मा कहलाता है । स्वात्मा से भिन्न अर्थ परात्मा या पररूप हैं । विवक्षित अर्थ की दृष्टि से घट है और तदितर दृष्टि से घट नहीं है । यदि इतर दृष्टि से भी घट हो तो नामादि व्यवहार (निक्षेप) का उच्छेद हो जाय ।
स्वरूप का दूसरा अर्थ यह है कि विवक्षित घट विशेषका जो प्रतिनियत संस्थानादि है वह स्वात्मा है । दूसरे प्रकार का संस्थानादि परात्मा है । प्रतिनियत रूप से घट है । इतर रूप से नहीं । यदि इतर रूप से भी घट हो तो सब घटात्मक हो जाय । पट आदि किसी का स्वतन्त्र अस्तित्व न रहे ।
काल की अपेक्षा से भी स्वात्मा और परात्मा का अर्थ-ग्रहण होता | घट की पूर्व और उत्तर काल में रहने वाली कुशूल, कपालादि अवस्थाएँ परात्मा है । तदन्तरालवर्ती अवस्था स्वात्मा है । घट कुशूल, कपालादिग्रन्तरालवर्ती अवस्था की दृष्टि से सत् है, कुशूल, कपालादि श्रवस्थाओं की दृष्टि से सत् नहीं है । यदि इन ग्रवस्थानों की दृष्टि से भी सत् होता तो उस समय ये भी उपलब्ध होतीं । कपालादि अवस्थाओं के लिए पुरुष को प्रयत्न न करना पड़ता ।
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स्वात्मा और परात्मा का एक अर्थ यह भी है कि प्रतिक्षरणभावी द्रव्य की जो पर्यायोत्पत्ति है वह स्वात्मा है और प्रतीत एवं अनागत पर्यायविनाश तथा पर्यायोत्पत्ति है वह परात्मा है । प्रत्युत्पन्न पर्याय की अपेक्षा से घट है और अतीत एवं अनागत पर्याय की अपेक्षा से घट नहीं है । यदि प्रतीत एवं अनागत पर्यायों की अपेक्षा से घट सत् हो