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स्याद्वाद
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सत् दोनों का निषेध करना ( २ ) सत् असत् और सदसत् तीनों का निषेध करना (३) सत् और असत् दोनों को अक्रम से अर्थात् युगपद् स्वीकृत करना । जहाँ प्रवक्तव्य का तीसरा स्थान है वहाँ सत् और असत् दोनों का निषेध समझना चाहिये । जहाँ प्रवक्तव्य । का चौथा स्थान है वहाँ सत्, असत् और सदसत् तीनों का निषेध समझना चाहिए । सत् और असत् दोनों का युगपद् प्रतिपादन करने की सूझ तर्कयुग के जैनाचार्यों की मालूम होती है । यह बात प्रागे स्पष्ट हो जाएगी । प्रवक्तव्यता दो तरह की है - एक सापेक्ष और दूसरी निरपेक्ष । सापेक्ष अवक्तव्यता में इस बात की झलक होती है कि तत्त्व सत्, असत् और सदसत् रूप से प्रवाच्य है । इतना ही नहीं अपितु नागार्जुन जैसे माध्यमिक बौद्धदर्शन के प्राचार्य ने तो सत्, असत्, सदसत् और अनुभय इन चारों दृष्टियों से तत्त्व को अवाच्य माना । उन्होंने स्पष्ट कहा कि वस्तु चतुष्कोटिविनिर्मुक्त है । इस प्रकार सापेक्ष प्रवक्तव्यता एक, दो, तीन या चारों पक्षों के निषेध पर खड़ी होती है । जहाँ तत्त्व न सत् हो सकता है, न असत् हो सकता है, न सत् और असत् दोनों हो सकता है, न अनुभय हो सकता है (ये चारों पक्ष एक साथ हों या भिन्न भिन्न ) वहाँ सापेक्ष अवक्तव्यता है । निरपेक्ष अवक्तव्यता के लिए यह बात नहीं है । वहाँ तो तत्त्व को सीधा 'वचन से अगम्य' कह दिया जाता है ।" पक्ष के रूप में जो अवक्तव्यता है वह सापेक्ष प्रवक्तव्यता है । ऐसा समझना चाहिये ।
उपनिषदों में सत्, प्रसत्, सदसत् और प्रवक्तव्य ये चारों पक्ष मिलते हैं, यह हम लिख चुके हैं । बौद्ध त्रिपिटक में भी ये चार पक्ष मिलते हैं । सान्तता और अनन्तता, नित्यता और अनित्यता आदि प्रश्नों को बुद्ध ने अव्याकृत कहा है। उसी प्रकार इन चारों पक्षों को भी अव्याकृत कहा गया है । उदाहरण के लिए निम्न प्रश्न अव्याकृत हैं :
१ - 'यतो वाचो निवर्तन्ते ।'