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स्याहाद
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दृष्टि से वस्तु इस प्रकार की कही जा सकती है। दूसरी दृष्टि से वस्तु का कथन इस प्रकार हो सकता है । यद्यपि वस्तु में ये सव धर्म हैं, किन्तु इस समय हमारा दृष्टिकोण इस धर्म की ओर है, इस लिए वस्तु एतद्रप प्रतिभासित हो रही है । वस्तु केवल एतद्रप ही नहीं है, अपितु उसके अन्य रूप भी हैं, इस सत्य को अभिव्यक्त करने के लिए 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया जाता है। इस स्यात्' शब्द के प्रयोग के कारण ही हमारा वचन 'स्याद्वाद' कहलाता है । 'स्यात्' पूर्वक जो 'वाद' अर्थात् वचन है-~कथन है, वह 'स्याद्वाद' है । इसीलिए यह कहा गया है कि अनेकान्तात्मक अर्थ का कथन 'स्याद्वाद' है । _ 'स्याद्वाद' को 'अनेकान्तवाद' भी कहते हैं। इसका कारण यह है कि 'स्याद्वाद' से जिस पदार्थ का कथन होता है, वह अनेकान्तात्मक है । अनेकान्त अर्थ का कथन यही 'अनेकान्तवाद' है । 'स्यात्' यह अव्यय अनेकान्त का द्योतक है, इसीलिए 'स्याद्वाद' को 'अनेकान्त' कहते हैं । 'स्याद्वाद' और 'अनेकान्तवाद' दोनों एक ही हैं । 'स्याद्वाद' में 'स्यात्' शब्द की प्रधानता रहती है। 'अनेकान्तवाद' में अनेकान्त धर्म की मुख्यता रहती है । 'स्यात्' शब्द अनेकान्त का घोतक है, अनेकान्त को अभिव्यक्त करने के लिए 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया जाता है।
. यह स्पष्टीकरण इसलिए है कि जैन ग्रन्थों में कहीं स्याद्वाद शब्द आया है तो कहीं अनेकान्तवाद शब्द का प्रयोग हुआ है । जैन दार्शनिकों ने इन दोनों शब्दों का एक ही अर्थ में प्रयोग किया है। इन दोनों शब्दों के पीछे एक ही हेतु रहा हुआ है और वह है वस्तु की अनेकान्तात्मकता । यह अनेकान्तात्मकता अनेकान्तवाद शब्द से भी प्रकट होती है और स्याहाद शब्द से भी । वैसे देखा जाय तो स्याद्वाद शब्द अधिक प्राचीन मालूम होता है, क्योंकि आगमों में
१-~अनेकान्तात्मकार्यकथनं स्याहादः-लघीयस्त्रयटीका ६२ २~'स्थादित्यव्ययमनेकान्तद्योतकं ततः स्याद्वादोऽनेकान्तवादः
-स्वाहादमजरी का