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ज्ञानवाद और प्रमाणशास्त्र
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सचमुच वादलों में है । यह तो दृष्टि के लिए एक ग्राधारमात्र है | इसी प्रकार मन भी अर्थ जानने का एक अाधारमात्र है । वास्तव में प्रत्यक्ष तो अर्थ का ही होता है । इसके लिए मन के आधार की आवश्यकता अवश्य रहती है । दूसरी परम्परा यह मानने के लिए तैयार नहीं । वहाँ मन का ज्ञान मुख्य है और अर्थ का ज्ञान उस ज्ञान के वाद की चीज है । मन के ज्ञान से अर्थ का ज्ञान होता है न कि सीधा अर्थज्ञान । मन:पर्यय का अर्थ ही यह है कि मन की पर्यायों का ज्ञान न कि अर्थ की पर्यायों का ज्ञान ।
उपर्युक्त दोनों परम्पराओं में से दूसरी परम्परा युक्तिसंगत मालूम होती है । मन:पर्ययज्ञान से साक्षात् प्रर्थज्ञान होना सम्भव नहीं, क्योंकि उसका विषय रूपी द्रव्य का अनन्तवाँ भाग है । यदि वह मन के सम्पूर्ण विषयों का साक्षात् ज्ञान कर लेता है तो ग्ररूपी द्रव्य भी उसके विषय हो जाते हैं, क्योंकि मन से ग्ररूपी द्रव्य का भी विचार हो सकता है । ऐसा होना इष्ट नहीं । मनःपर्ययज्ञान मूर्त द्रव्यों का साक्षात्कार करता है और वह भी अवधिज्ञान जितना नहीं । अवधिज्ञान सब प्रकार के पुद्गल द्रव्यों का ग्रहण करता है किन्तु मन:पर्ययज्ञान उनके अनन्तवें भाग अर्थात् मनरूप बने हुये पुद्गलों का मानुषोत्तर क्षेत्र के अन्तर्गत ही ग्रहण करता है । मन का साक्षात्कार हो जाने पर तच्चिन्तित ग्रर्थं का ज्ञान अनुमान से हो सकता है । ऐसा होने पर मन के द्वारा चिन्तित मूर्त, अमूर्त सभी द्रव्यों का ज्ञान हो सकता है ।
अवधि और मन:पर्यय :
अवधि और मन:पर्यय दोनों ज्ञान रूपी द्रव्य तक सीमित हैं तथा पूर्ण अर्थात् विकलप्रत्यक्ष हैं। इतना होते हुए भी दोनों में अन्तर है । यह ग्रन्तर चार दृष्टियों से है - विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय ' । मनःपर्ययज्ञान अपने विषय को अवधिज्ञान की अपेक्षा विशद्रूप से जानता
१ - ' तदनन्तभागे मनःपर्यायस्य' ।
- तत्त्वार्थसूत्र १२ε २ - विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमनः पर्याययोः ।
-तत्त्वार्थसूत्र ११२६