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मानवाद और प्रमाणशास्त्र शब्द का प्रयोग हआ है। यह ज्ञान धारणा की कोटि में पहेंच कर ही पक्का होता है, इसलिए यह मतभेद है। अवाय में कुछ कमी अवश्य रहती है। विध्यात्मक मानकर भी उसकी दृढावस्था धारणा में ही मानी गई है। इसलिए इन दोनों परम्परायों में विशेष भेद नहीं रह जाता। धारणा:
अवाय के बाद धारणा होती है। धारणा में ज्ञान इतना दृढ़ हो जाता है कि वह स्मृति का कारण बनता है। इसीलिए धारणा को स्मृति का हेतु कहा गया है। यह संख्येय अथवा असंख्येय समय तक रहती है। नंदीसूत्र में धारणा के लिए इन शब्दों का प्रयोग हया है-धारणा, स्थापना. प्रतिष्ठा, कोष्ठा । उमास्वाति ने निम्नलिखित पर्याय दिए हैं--प्रतिपत्ति, अवधारणा, अवस्थान, निश्चय, अवगम, अवबोध' । जिनभद्र ने धारणा की व्याख्या करते हुए कहा है कि ज्ञान की अविच्युति को धारणा कहते हैं । जो ज्ञान शीघ्र ही नष्ट न हो जाय, अपितु स्मृति के लिए हेतु का कार्य कर सके, वही जान धारणा है। यह धारणा तीन प्रकार की है। (१) अविच्युति--पदार्थ के ज्ञान का विनाश न होना। (२) वासना-संस्कार का निर्माण होना । (३) अनुस्मरणभविष्य में उन संस्कारों का जाग्रत् होना। इस प्रकार अविच्युति, वासना, और स्मति तीनों धारणा के अंग हैं। वादिदेवसरि के अनुसार यह मत ठीक नहीं है। धारगा, अवाय-प्रदत्त ज्ञान की हड़तमावस्था है। कुछ काल के लिए अवाय का दृढ़ रहना-यही धारणा है। धारणा म्मति का कारगा नहीं बन सकती, क्योंकि किमी भान का इतने लम्बे काल तक वरावर चलते रहना सम्भव
: --त्यापंमूष भाप्य, हारिभद्रीप टीका, मिदनीय टीका २-स्मृतितर्धारमा' प्रमाणमीमांसा १२१२६
५.--'अविस्नु पारमा तस्स-विरोपावश्यक. १८० ६. यही २६१