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जानवाद और प्रमाणशास्त्र
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ईहा :
अवग्रह के वाद ज्ञान ईहा में परिणत होता है। अवगृहीतार्थ की विशेष रूप से जानने की इच्छा ईहा है।' नंदीसूत्र में ईहा के लिए निम्न शब्द आते हैं--आयोगणता, मार्गणता, गवेपणता, चिन्ता, विमर्ष । उमास्वाति ने ईहा, ऊह, तर्क, परीक्षा, विचारणा और जिज्ञासा का प्रयोग किया है। अवग्रह से गुजरते हए ईहा तक कैसे पहुँचते हैं, इसे समझने के लिए पुन: शब्द का उदाहरण लेते हैं । अवग्रह में इतना ज्ञान हो जाता है कि कहीं से गब्द सुनाई दे रहा है । शब्द सुनने पर व्यक्ति सोचता है कि किसका शब्द है ? कौन बोल रहा है ? स्त्री है या पुरुष ? इसके वाद स्वर की तुलना होती है। स्वर मीठा और आकर्षक है, इसलिए किसी स्त्री का होना चाहिए। पुरुष का स्वर कठोर एवं रूखा होता है। यह स्वर पुरुष का नहीं हो सकता । ईहा में ज्ञान यहाँ तक पहुँच जाता है।
ईहा संशय नहीं है, क्योंकि संशय में दो पलड़े वरावर रहते हैं । ज्ञान का किसी एक अोर झकाव नहीं होता। 'पुरुष है या स्त्री' ? इसका जरा भी निर्णय नहीं होता । न तो पुरुष की अोर ज्ञान भवता है, न स्त्री की अोर । ज्ञान की दशा त्रिशंकु सी रहती है । ईहा में ज्ञान एक पोर झक जाता है । अवाय में जिसका निश्चय होने वाला है उसी पोर ज्ञान का झुकाव हो जाता है। यह स्त्री का शब्द होना चाहिए, क्योंकि इसकी यह विशेषता है'-इस प्रकार का ज्ञान ईहा है । यद्यपि ईहा में पूर्ण निर्णय नहीं हो पाता तथापि जान निर्गय की पोर भक अवश्य जाता है। संशय में ज्ञान किसो थोर नहीं झुकता । संशय ईहा के पहले होता है। ईहा हो जाने पर संगय समाप्त हो जाता है । -- 'अवगृहीताविरोपकांक्षगामी' ।
-प्रमागानयनन्यालोक २८
३-तत्यामा ११