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जैन-दर्शन में तत्त्व
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सकता है, क्योंकि अनन्त परितानन्त, युक्तानन्त और अनन्तानन्त के भेद से तीन प्रकार का है ।'
धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों सर्व लोकव्यापी हैं तो इनमें परस्पर व्याघात क्यों नहीं होता ? व्याघात हमेशा मूर्त पदार्थों में होता है, अमूर्त पदार्थों में नहीं। धर्म, अधर्म और आकाश अमूर्त हैं, अत: वे एक साथ निर्विरोध रह सकते हैं।
अाकाश अन्य द्रव्यों को अवकाश देता है, यह ठीक है, किन्तु. ग्राकाश को कौन अवकाश देता है ? अाकाश स्वप्रतिष्ठित है। उसके लिए किसी अन्य द्रव्य को अावश्यकता नहीं । यदि ऐसा है तो सभी द्रव्यों को स्वप्रतिष्ठित क्यों न मान लिया जाय ? इसका उत्तर यह. है कि निश्चय दृष्टि से तो सभी द्रव्य यात्म-प्रतिष्ठित हैं । व्यवहार दृष्टि से अन्य द्रव्य अाकाशाथित हैं। इन द्रव्यों का सम्वन्ध अनादि है । अनादि सम्बन्ध होते हुए भी इनमें शरीर हस्तादि की तरह श्राधाराधेय भाव घट सकता है। अाकाश अन्य द्रव्यों से अधिक व्यापक है, अतः वह सबका अाधार है। ____ अाकाश को कुछ दार्शनिकों ने स्वतन्त्र द्रव्य माना है और कुछ ने नहीं माना । जिन्होंने उसे स्वतन्त्र द्रव्य माना है उनमें से किसी ने भी जैन दर्शन की तरह लोकाकाश और अलोकाकाश के रूप में नहीं माना। पाश्चात्य दर्शनशास्त्र के इतिहास में 'रिक्तग्राकाश (Empty space) है या नहीं' इस विपय पर काफी विवाद है, किन्तु इस ढंग के दो अलग-अलग विभाग वहाँ भी नहीं हैं। श्रद्धासमय :
परिवर्तन का जो कारण है उसे अद्धासमय या काल कहते हैं । काल की व्याख्या दो दृष्टियों से की जा सकती है। द्रव्य का स्वजाति के परित्याग के विना वैनसिक और प्रायोगिक विकाररूप परिणाम व्यवहार दृष्टि से काल को सिद्ध करता है । प्रत्येक द्रव्य . परिवर्तित होता रहता है। परिवर्तनों के होते हुए भी उनकी जाति
१-तत्त्वार्थ राजवातियः ५.१०, २ २ .-यही ५।२२, १०