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जैन-दर्शन में तत्त्व
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व्यापी हैं ग्रतः दोनों का देश-स्थान एक है । दोनों का परिमारण भी एक है, क्योंकि दोनों सारे लोकाकाश में व्याप्त हैं । दोनों का काल भी एक है, क्योंकि दोनों ही त्रैकालिक हैं । दोनों ही मूर्त हैं, अजीव हैं, ग्रनुमेय हैं । इसका समाधान यह है कि इन सारी एकतात्रों के होने पर भी उन्हें एक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उन दोनों के कार्य भिन्न-भिन्न हैं । एक का कार्य गति में सहायता देना है तो दूसरे का स्थिति में सहायक होना है । इस प्रकार दो विभिन्न और विरोधी कार्यों के करते हुए दोनों एक कैसे हो सकते हैं ? द्रव्यत्व की दृष्टि से भले ही एक हों, किन्तु अपने-अपने कार्य या स्वभाव की दृष्टि से दोनों भिन्न हैं ।
धर्म और अधर्म ग्रमूर्त द्रव्य हैं, ऐसी स्थिति में वे गति और स्थिति में कैसे सहायक हो सकते हैं ? इसका उत्तर यह है कि सहायता देने की समर्थता के लिए मूर्तता अनिवार्य गुरण नहीं माना जा सकता । कोई द्रव्य अमूर्त होकर भी अपना कार्य कर सकता है । उदाहरण के लिए श्राकाश यद्यपि अमूर्त है फिर भी पदार्थ को प्राकाश-- स्थान देता है । यदि श्राकाश के लिए, प्रवकाश प्रदान रूप कार्य सम्भव नहीं तो धर्म और अधर्म के लिए गति और स्थिति में सहायता रूप कार्य क्यों कर कठिन है ।
श्राकाश :
जो द्रव्य जीव, पुद्गल, धर्म, ग्रधर्म ग्रौर काल को स्थान देता है— अवगाह देता है वह ग्राकाश है । यह सर्वव्यापी है, एक है, अमूर्त है और अनन्त प्रदेश वाला है । इसमें सभी द्रव्य रहते हैं । यह ग्ररूपी है । आकाश के दो विभाग हैं— लोकाकाश और लोकाकाश । जहाँ पुण्य और पाप का फल देखा जाता है वह लोक है । लोक का जो आकाश है वह लोकाकाश है । जैसे जल के ग्रामस्थान को जलाशय कहते हैं उसी प्रकार लोक के प्रकाश को लोकाकाश कहते हैं । यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि आकाश
१ -- ' चाकाशस्यावगाहः ।'
-तत्त्वार्धसूत्र ५१८