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.: जैन-दर्शन भेद दो कारणों से होता है - श्राभ्यन्तर और बाहय । प्राभ्यन्तर कारण से जो एक स्कन्ध का भेद होकर दूसरा स्कन्ध बनता है उसके लिए किसी बाह य कारण की अपेक्षा नहीं रहती। स्कन्ध में स्वयं विदारण होता है। बाहय कारण से होने वाले भेद के लिये स्कन्ध के अतिरिक्त अन्य कारण की आवश्यकता रहती है । उस कारण के होने पर उत्पन्न होने वाले भेद को बाहय कारणपूर्वक कहा गया है ।
विविक्त अर्थात् पृथक् भूतों का एकीभाव संघात है। यही वाहय और आभ्यन्तर भेद से दो प्रकार का हो सकता है। दो पृथक्-पृथक् अरण ओं का संयोग संघात का उदाहरण है।
जब भेद और संघात दोनों एक साथ होते हैं तब जो स्कन्ध बनता है वह भेद और संघात उभयपूर्वक होने वाला स्कन्ध कहा जाता है। जैसे ही एक स्कन्ध का एक हिस्सा अलग हुआ और उस स्कन्ध में उसी समय दूसरा स्कन्ध आकर मिल गया और एक नया स्कन्ध बन गया। यह नया स्कन्ध भेद और संघात उभयपूर्वक है।
इस प्रकार स्कन्ध के निर्माण के तीन मार्ग हैं। इन तीन मार्गों में से किसी भी मार्ग से स्कन्ध बन सकता है । कभी केवल भेद से ही स्कन्ध बनता है, तो कभी केवल संघातपूर्वक ही स्कन्ध का निर्माण होता है, तो कभी भेद और संघात उभयपूर्वक स्कन्ध निर्मित होता है। • संघात अथवा बन्ध कैसे होता है। इस प्रश्न के उत्तर में जैन-दार्शनिक कहते हैं कि 'पुद्गल में स्निग्धत्व और रूक्षत्व के कारण बन्ध होता है। स्निग्ध और रूक्ष दो स्पर्श हैं। इन्हीं के कारण पुद्गल में बंध होता है । बन्ध के लिए निम्न बातें होना जरूरी हैं ---
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१- सर्वार्थसिद्धि ५।२६ २--स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्धः ३--'न जघन्यगुणानाम्"
"गुणसाम्ये सदृशानाम्" "द्वयधिकादिगुणानां तु"
-तत्त्वार्थ सूत्र ५।३२
-तत्त्वार्थ सूत्र ५ । ३३-३५.