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जैन-दर्शन में तत्त्व
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उपर्युक्त मान्यता का खण्डन करते हुए यह कहा गया कि श्रात्मा चैतन्यस्वरूप है । चैतन्य श्रात्मा का मूल गुरण है, ग्रागन्तुक या श्रीपाधिक नहीं । आत्मा और चैतन्य में एकान्त भेद नहीं है । यदि श्रात्मा श्री ज्ञान को एकान्त भिन्न माना जाय तो चैत्र का ज्ञान चैत्र की आत्मा से उतना ही भिन्न है जितना कि मंत्र की ग्रात्मा से । इसी प्रकार मैत्र का ज्ञान भी मैत्र की ग्रात्मा से उतना ही भिन्न है जितना कि चैत्र की श्रात्मा से । चैत्र और मैत्र दोनों का ज्ञान दोनों की श्रात्मानों के लिए एक मरीखा है । ऐसी स्थिति में इसका क्या कारण है कि चैत्र का ज्ञान चैत्र की ही श्रात्मा में है और मैत्र का ज्ञान मैत्र की ही श्रात्मा में ? दोनों ज्ञान दोनों में समान रूप से रहने चाहिएँ । वास्तव में 'उसका ज्ञान' 'इसका ज्ञान' या 'मेरा ज्ञान' जैसी कोई वस्तु नहीं है । सभी ज्ञान सबसे समान रूप से भिन्न है, क्योंकि ज्ञान ग्रात्मा का स्वभाव नहीं है । वह बाद में श्रात्मा से जुड़ता है ।
इस कठिनाई को दूर करने के लिए यह हेतु दिया जाता है कि यद्यपि ज्ञान और ग्रात्मा बिल्कुल भिन्न हैं तथापि ज्ञान श्रात्मा से समवाय सम्बन्ध से सम्बद्ध है । जो ज्ञान जिस ग्रात्मा के साथ सम्बद्ध होता है वह ज्ञान उसी श्रात्मा का कहा जाता है, अन्य का नहीं। इस प्रकार समवाय सम्वन्ध हमारी सारी कठिनाई दूर कर देता है । चैत्र का ज्ञान चैत्र की ग्रात्मा से सम्बद्ध है; न कि मैत्र की आत्मा से । इसी तरह मैत्र का ज्ञान मैत्र की श्रात्मा के साथ समवाय सम्बन्ध से सम्बद्ध है न कि चैत्र की आत्मा के साथ । जो ज्ञान जिस श्रात्मा के साथ समवाय सम्बन्ध से जुड़ा हुआ होता है वह ज्ञान उसी आत्मा का ज्ञान कहा जाता है ।
नैयायिकों ौर वैशेषिकों का यह हेतु ठीक नहीं । नमवाय एक है, नित्य है और व्यापक है ।' अमुक ज्ञान का सम्बन्ध चैत्र से ही होना चाहिए, मैत्र से नहीं, इसका कोई सन्तोषप्रद उत्तर नहीं है । जब समवाय एक, नित्य और व्यापक है, तब ऐसा क्यों कि अमुक ज्ञान का सम्वन्ध
१- समवायस्यैकत्वानित्यत्वाद्व्यापकत्वाचं' ।
- स्वाद्वादमारी, का० ८