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जैन-दर्शन में तत्त्व
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ज्ञान, संवेदन और इच्छा (Cognition, Affection and Conation) किसी एक प्रात्मिक तत्त्व के विना सम्भव नहीं । ये तीनों क्रियाएँ बिखरी हुई अवस्था में उपलब्ध न हो कर व्यवस्थित ढंग से एक दूसरे से सम्वद्ध और सापेक्ष रूप में मिलती हैं । किसी एक सामान्य तत्त्व के प्रभाव में उनका पारस्परिक सम्वन्ध नहीं हो सकता । इनकी एकरूपता और अन्वय बिना किसी सामान्य आधार के सम्भव नहीं । शुद्ध भौतिक मस्तिष्क इस प्रकार की एकरूपता, व्यवस्था और ग्रन्वय के प्रति कारण नहीं हो सकता ।
संशय और संशयी का प्रश्न भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । संशय के लिए किसी ऐसे तत्त्व की अनिवार्यता है, जो उसका आधार हो । विना अधिष्ठान के किसी ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती । संशय का अधिष्ठान कोई न कोई अवश्य होना चाहिए। सांख्यकारिका में पुरुष की सिद्धि के लिए एक हेतु 'अधिष्ठानात्' भी दिया गया है । इसी प्रकार से भोक्तृत्वादि हेतु भी उपस्थित किए गए हैं ।" ये सारे हेतु यहाँ प्रयुक्त हो सकते हैं । विशेषावश्यक भाष्य में महावीर गीतम से कहते हैं कि हे गौतम ! यदि संशयी ही नहीं है तो "मैं हूँ या नहीं हूँ" यह संशय कहाँ से उत्पन्न होता है ? यदि तुम स्वयं ही अपने खुद के विषय में सन्देह कर सकते हो तो फिर किसमें सशय न होगा ।
श्रात्मा की सिद्धि के लिए गुरण और गुणी का हेतु भी दिया जाता है । घट के रूपादि गुणों को देखकर घट का अस्तित्व सिद्ध किया जाता है उसी प्रकार ग्रात्मा के ज्ञानादि गुरगों का अनुभव करके आत्मा को सिद्ध किया जा सकता है । गुण और गुणी का सम्बन्ध विच्छेद्य है । जहाँ गुण होते हैं वहां गुणी अवश्य होता है और जहाँ गुणी रहता है वहाँ गुरण अवश्य होते हैं। न तो गुण गुणी के प्रभाव में रह सकते हैं और न गुणी गुरण के विना रह
१ - संघातपरार्थत्वात् त्रिगुणादिविपर्ययादधिष्ठानात् । पुरुषोऽस्ति भोक्तृभावाद, कैवल्याचं प्रवृत्तेश्च ॥
२ - विशेषावश्यक भाष्य, १५५७
- सांस्कारिका, १७