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जैन-दर्शन
इसलिए यह कहना ठीक नहीं कि अणु प्रत्यक्ष का विपय न बनता हुआ भी सत् है । अणु का कार्य जव प्रत्यक्षग्राह्य है तव अणु भी सत् है, ऐसा कहने में कोई वाधा नहीं। प्रात्मा के विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आत्मा किसी भी दशा में इन्द्रिय-प्रत्यक्ष का विषय नहीं बन सकती । अत: आत्मा असत् है।
आत्मा अनुमान का विपय भी नहीं बन सकती, क्योंकि अनुमान प्रत्यक्षपूर्वक होता है। जब किसी वस्तु के अविनाभावसम्बन्ध का ग्रहण होता है, उस सम्बन्ध का कहीं प्रत्यक्ष होता है और पूर्व सम्बन्धग्रहण की स्मृति होती है तब अनुमान-जन्य ज्ञान पैदा होता है । प्रात्मा और उसके किसी अविनाभावी लिंग का कभी प्रत्यक्ष ही नहीं होता, ऐसी दशा में आत्मा अनुमान का विषय कैसे बन सकती है ? हमें आत्मा के किसी भी ऐसे लिंग का ज्ञान नहीं, जिसे देख कर आत्मा का अनुमान कर सकें।
आगम-प्रमाण से भी आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व की सिद्धि नहीं की जा सकती, क्योंकि जिसका प्रत्यक्ष ही नहीं वह अागम का विषय कैसे बन सकता है। श्रागमप्रमाण का मुख्य आधार प्रत्यक्ष है। कोई ऐसा व्यक्ति नहीं जिसे आत्मा का प्रत्यक्ष हो और जिसके वचनों को प्रमाण मान कर अात्मा का अस्तित्व सिद्ध किया जा सके । यदि किसी को. आत्मा का प्रत्यक्ष होता तो उसके वचनों को प्रमाण मानकर आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि की जाती। ऐसे व्यक्ति के अभाव में आगमप्रमाण भी व्यर्थ है। थोड़ी देर के लिए यदि आगम-प्रामाण्य मान भी लिया जाय, तथापि आत्मा की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि आगम परस्पर विरोधी बातें बताते हैं। किसी के आगम में किसी बात की सिद्धि मिलती है तो किसी का आगम उसी बात का खण्डन करता है। कोई आगम एक बात को सत्य एवं वास्तविक मानता है तो दूसरा उसी बात का खण्डन करता है । कोई आगम एक बात को सत्य एवं वास्तविक मानता है तो दूसरा उसी बात को मिथ्या एवं काल्पनिक समझता है।
१-वही १५५०-५१ २-वही १५५२