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जैन दर्शन और उसका आधार
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दर्शन की धारा का प्रवाह अविच्छिन्न रूप से बहता रहे, यह असंभव है । प्रत्येक युग की एक विशिष्ट देन होती है । जो धारा उस देन से लाभ उठा सकती है वही आगे के युग में जीवित रह सकती है । प्रत्येक युग का संस्कार लिये बिना वह आगे नहीं बढ़ सकती । यद्यपि उसकी मौलिक प्रवृत्ति वही रहती है तथापि युग की परिवर्तित परिस्थिति एवं प्रवृत्ति को प्रभाव उस पर अवश्य पड़ता है और यही प्रभाव उसे विविध रूपों में ढालता रहता है । उस प्रभाव का सामयिक उपयोग करने वाली विचारधारा हमेशा नूतन सन्देश देती रहती है । उसके सन्देश का आकार हमेशा बदलता रहता है, किन्तु उसका अंतरंग हमेशा एक-सा रहता है ।
टिप्पणी- प्रस्तुत ग्रन्थ की पाण्डुलिपि तैयार होने के बाद जैनदर्शन पर कुछ ग्रन्थ और प्रकाशित हुए हैं । निम्नलिखित ग्रन्थ विशेष उल्लेखनीय हैं१ - जैनदर्शन --- पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य
२ – Outlines of Jaina Philosophy. M. L. Mehta ३ – Jaina Psychology -M.L. Mehta