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जैन-दर्शन और उसका प्राधार
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मुख में नहीं थे। एक प्रकरगा तो नयवाद पर है, जिसका माणिक्यचन्द्र ने अपने ग्रन्थ में समावेश नहीं किया। यह सातवाँ प्रकरगा जैन न्यायशास्त्र के पूर्ण ज्ञान के लिए अत्यन्त आवश्यक है। इस सातवें प्रकरण के अतिरिक्त प्रमागानयतत्त्वालोक में ग्राठवाँ प्रकरण वादविद्या पर है। इस दृष्टि से परीक्षामुग्व की अपेक्षा यह ग्रन्थ कहीं अधिक उपयोगी है। वादी देवमूरि इतना ही करके सन्तुष्ट न हुए, अपितु, उन्होंने इसी ग्रन्थ पर स्वोपक्ष टीका भी लिखी। यह टीका स्याहादरत्नाकर के नाम से प्रसिद्ध है। इस बृहकाय टीका में उन्होंने दार्गनिक समस्यायों का उस गमय तक जितना विकास हया, सवका समावेश किया। प्रभाचन्द्रकृत स्त्रीमुक्ति और केवलि कवलाहार की चर्चा का श्वेताम्बर दृष्टि से उत्तर देने से भी वे न नूये । इतना ही नहीं, अपितु, कहीं-कहीं तो उन्होंने अन्य दागनिकों के प्राक्षेपों का उत्तर बिलकुल नये ढंग से दिया। इस तरह वादी देवमूरि अपने समय के एक श्रेष्ठ दार्शनिक थे, इसमें कोई संदाय नहीं । इनका समय वि० ११४३ से १२२६ तक है।
प्राचार्य हेमचन्द्र का जन्म वि० सं० ११४५ की कार्तिकी पूर्णिमा के दिन ग्रहमदाबाद के समीप धन्धुका ग्राम में हया। इनका वाल्यकाल का नाम गंगदेव धा। इनके पिता दोवधर्म के अनुयायी थे और माता जेनधर्म पालती थीं । प्रागे जाकर ये देवचन्द्रसूरि के शिष्य बने और इनका नाम सोमचन्द्र रमा गया । देवचन्द्रभूरि अपने गिप्य के गुगों पर बहुत प्रमान थे और नाम ही नाव नोमचन्द्र की वित्ता की चाक भी मानते घं। वे अपने जीवन काल में ही नोमनन्द्र को प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित पारना ना.ले धे। वि.नं० ११६६ की वगाव शुक्ला तृतीया के दिन मोमचन्द्र को नागौर में यानाषद प्रदान किया गया। मोमचन्द्र के पानी की प्रभा और कान्लि मुव के समान थी. अत: उनका नाम हमनदया गया। पर उनके नाम का इतिहान है।
नामचन्द्र की प्रतिमा कहती थी, यह उनकी कृतियों को दाद मालूम हो जाता है. कोई ऐमा महत्वपुर्ण विषय न घा,
सनी बलम न गनाई हो । धारा , कोग, बन्द,