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________________ १०४ जैन-दर्शन है । जैन न्यायशास्त्र में यही लक्षण मान्य है। दुर्भाग्य से यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। प्रमाणशास्त्र व्यवस्था युग : दिङ्नाग के विचारों ने भारतीय प्रमाणशास्त्र और न्यायशास्त्र को प्रेरणा दी, यह हम देख चुके हैं। दिङ्नाग बौद्ध तर्क- . शास्त्र का पिता कहा जा सकता है । दिङ्नाग की प्रतिभा के । फलस्वरूप ही प्रशस्त, उद्योतकर, कुमारिल, सिद्धसेन, मल्लवादी, सिंहगणि, पूज्यपाद, समन्तभद्र, ईश्वरसेन, अविद्धकर्ण आदि दार्शनिकों की रचनाएँ हमारे सामने आई। इन रचनाओं में दिङ्नाग की मान्यताओं का खण्डन था । इसी संघर्ष के युग में धर्मकीति पैदा हुए। उन्होंने दिङ्नाग पर आक्रमण करने वाले सभी दार्शनिकों को करारा उत्तर दिया और दिङ्नाग के दर्शन का नए प्रकाश में परिष्कार किया। धर्मकीर्ति की परम्परा में अर्चट, धर्मोतर, शान्तरक्षित, प्रज्ञाकर आदि हुए जिन्होंने उनके पक्ष की रक्षा की। दूसरी ओर प्रभाकर, उम्बेक, व्योमशिव, जयन्त, सुमति, पात्रकेशरी, मंडन आदि बौद्धेतर दार्शनिक हुए जिन्होने बौद्ध पक्ष का खण्डन किया। इस संघर्ष के फलस्वरूप आठवीं-नवीं शताब्दी में जैनदर्शन के समर्थक अकलंक, हरिभद्र आदि दार्शनिक मैदान में आए । अकलंक: जैन-परम्परा में प्रमाणशास्त्र का स्वतंत्र रूप से व्यवस्थित निरूपण अकलंक की ही देन है। दिङ्नाग के समय से लेकर अकलंक तक बौद्ध और बौद्धेतर प्रमाणशास्त्र में जो संघर्ष चलता रहा, उसे ध्यान में रखते हुए जैन प्रमाणशास्त्र का प्राचीन मर्यादा के अनुकूल प्रतिपादन करने का श्रेय अकलंक को है। प्रमारणसंग्रह न्यायविनिश्चय, लघीयस्त्रयी आदि ग्रन्थ इस मत की पुष्टि करते हैं । अनेकान्तवाद के समर्थन में उन्होंने समन्तभद्रकृत आप्तमीमांसा पर अष्टशती नामक टीका लिखी। सिद्धिविनिश्चय में भी उनका यही दृष्टिकोण है।
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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