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जैन-दर्शन और उसका आधार
वह एक कोन है ? इसका उत्तर देते हुए समन्तभद्र ने कहा कि जिसमें मोहादि दोपों का सर्वथा अभाव है और जो सर्वज्ञ है वही प्राप्त है । ऐसा व्यक्ति अर्हन्त ही हो सकता है, क्योंकि अर्हन्त के उपदेश प्रमाण से बाधित नहीं होते।' यह जैन दृष्टि की पूर्व भूमिका है । जैन दर्शन निर्दोष एवं सर्वज्ञ अर्हन्तों की वाणी को ही प्राप्तप्रणीत मानता है । जो वारणी प्रमाण से वाधित है वह सर्वज्ञ की वाणी नहीं हो सकती, क्योकि सर्वज्ञ की वारणी कभी वाचित नहीं होती । अबाधित वाणी ही प्राप्त-वचन है। इस प्रकार के प्राप्तवचन ही प्रमाणभूत माने जा सकते हैं। प्रत्यक्षादि प्रमाण से वाधित सिद्धान्तों को प्राप्तवचन नहीं कहा जा सकता । इस प्रकार अबाधित सिद्धान्त ही आप्तत्व की कसौटी है । इस कसौटी को हाथ में लेकर समन्तभद्र आगे बढ़ते हैं और सभी प्रकार के ऐकान्तिक वादों में प्रम गण-विरोध दिखाकर अनेकान्तवाद की ध्वजा ऊँची फरकाते हैं।
एकान्तवाद के दो मुख्य पहलू हैं । एक पक्ष एकान्त सत् का प्रतिपादन करता है तो दूसरा पक्ष एकान्त असत् का। एक पक्ष । गाश्वतवाद का आश्रय लेता है तो दूसरा पक्ष उच्छेदवाद का प्रतिपादन न करता है । इसी प्रकार नित्यकान्त और अनित्यैकान्त, भेदैकान्त और
अभेदकान्त और विशेषकान्त, गुणकान्त और द्रव्यकान्त, सापेक्षकान्त,
और निरपेक्षकांत, हेतुवादकान्त और अहेतुवादकान्त, विज्ञानकान्त है. और भूतकान्त, देवकान्त श्रीर पुरुषार्थकान्त, वाच्यकांत और र अवाच्यकांत प्रादि दृष्टिकोण एकांतवाद के समर्थक हैं । समंतभद्र द ने प्राप्तमीमांसा में दो विरोधी पक्षों के ऐकांतिक अाग्रह से उत्पन्न
होने वाले दोनों को दिखाकर स्याहाद की स्थापना की है । स्याद्वाद को लघर में रख कर सप्तभंगी की योजना की है। प्रत्येक दो
{- त्वमेवानि निर्दोपा, मुक्तिशाराविरोधिवाय । मविरोधोपदिष्टं से, प्रमिलेन न बाध्यते ॥
-प्राप्तमीमांसा, का