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जैन-दर्शन
ज्ञानों का प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणों में विभाजन किया गया है । उसके बाद मति ज्ञान की उत्पत्ति और उसके भेदों पर प्रकाश डाला गया है । तदुपरान्त श्रुतज्ञान का वर्णन है । फिर अवधि, मनःपर्यय और केवल ज्ञान और उनके भेद-प्रभेद तथा पारस्परिक अन्तर का कथन है। तत्पश्चात् पाँचों ज्ञानों का तारतम्य बतलाते हुए उनका विषय-निर्देश एवं उनकी सहचारिता का दिग्दर्शन कराया गया है । तदनन्तर मिथ्याज्ञानों का निर्देश है । अन्त में नय के भेदों का कथन है।
दूसरे अध्याय में जीव का स्वरूप, जीव के भेद, इन्द्रियभेद, मृत्यु और जन्म की स्थिति, जन्मस्थानों के भेद, शरीर के भेद और जातियों का लिंग, विभाग, आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है।
तीसरे अध्याय में अधोलोक के विभाग, नारक जीवों की दशा, द्वीप, समुद्र, पर्वत, क्षेत्र आदि का वर्णन, इत्यादि भौगोलिक विषयों पर काफी चर्चा है।
चौथे अध्याय में देवों की विविध जातियाँ, उनके परिवार, भोग, . स्थान, समृद्धि, जीवनकाल और ज्योतिर्मण्डल आदि दृष्टियों से खगोल का वर्णन किया गया है।
पांचवें अध्याय में निम्न विषयों पर प्रकाश डाला गया है :-द्रव्य के मुख्य भेद, उनकी परस्पर तुलना, उनकी स्थिति, क्षेत्र एवं कार्य, पुद्गल का स्वरूप, भेद और उत्पत्ति, सत् का स्वरूप, नित्य का लक्षण, पौद्गलिक वन्ध की योग्यता और अयोग्यता, द्रव्य लक्षण, काल स्वतन्त्र द्रव्य है या नहीं इसका विचार एवं काल का स्वरूप, गुण और परिणाम के भेद ।
छठे अध्याय में पाश्रव का स्वरूप, उसके भेद एवं तदनुकूल कर्मबन्धन आदि बातों का विवेचन है।
सातवें अध्याय में व्रत का स्वरूप, व्रत ग्रहण करने वालों के भेद, व्रत की स्थिरता, हिंसा आदि अतिचारों का स्वरूप, दान-स्वरूप, इत्यादि विषयों पर प्रकाश डाला गया है।
पाठवें अध्याय में कर्मवन्धन के हेतु और कर्मवन्धन के भेद पर विचार किया गया है।