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जैन-दर्शन और उसका प्राधार
८७ स्थानांग में प्रात्मा, पुद्गल, ज्ञान आदि विषयों पर अच्छी चर्चा है। इसमें सात निहनवों का भी वर्णन है। महावीर के सिद्धान्तों की एकांगी वातों को लेकर एकान्तवाद का प्रचार करने वाले निहनव कहे गए हैं।
समवायांग में भी ज्ञान, नय, प्रमाण आदि विषयों पर काफी चर्चा है।
अनुयोग में शब्दार्थ की प्रक्रिया का वर्णन मुख्य है। प्रसंगवशात् प्रमाण, नय तथा तत्त्व का सुन्दर निरूपण किया गया है । आगमों पर टीकाएँ:
उपयुक्त आगमों की अनेक टीकाएं मिलती हैं । कुछ टीकाएँ प्राकृत में हैं तो कुछ संस्कृत में। कुछ गद्य में लिखी गई है तो कुछ पद्य में। प्राकृत में जो टीकाएँ हुई हैं वे नियुक्ति, भाष्य और चूरिण के नाम से प्रसिद्ध हैं । नियुक्ति और भाष्य पद्य में हैं और चूणि गद्य में । उपलब्ध नियुक्तियां प्रायः भद्रबाहु (द्वितीय) की रचनाएं हैं। उनका समय विक्रम संवत् ४००-६०० तक का है। नियुक्तियों में कहीं-कहीं दार्शनिक विषयों पर सुन्दर विवेचन मिलता है। प्रमाण, नय, ज्ञान, आत्मा, निक्षेप आदि विपयों पर अच्छी चर्चा मिलती है।।
भाष्यकारों में संघदासगगि और जिनभद्र विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । इनका समय विक्रम की सातवीं शताब्दी है। विशेषावश्यक भाष्य जिनभद्र की सुन्दर कृति है। इसमें तत्त्व का व्यवस्थित एवं युक्तियुक्त विवेचन मिलता है । संवदासगरिएका बृहत्कल्प भाष्य साधुओं के आहारविहार के नियमों का दार्शनिक एवं तार्किक विवेचन है।
चूगियों का समय लगभग सातवीं-आठवीं शताब्दी है। चूर्णिकारों में जिनदास महत्तर का नाम विशेष उल्लेखनीय है । इन्होंने नन्दी आदि अनेक सूत्रों पर चूणियाँ लिखी हैं । चूणियाँ संक्षिप्त एवं सरल हैं। कहींकहीं कथाओं का भी समावेश किया गया है।
सस्कृत टीकाकारों में प्राचार्य हरिभद्र का विशेष महत्त्व है। जैन आगमों पर प्राचीनतम संस्कृत टीका इन्हीं की है। इनका समय संवत् ७५७ से ८५७ के वीच का है। हरिभद्र ने प्राकृत चूणियों के आधार से ही टीका लिखी है। बीच-बीच में दार्शनिक दृष्टि का विशेष उपयोग किया है। हरिभद्र के वाद शीलांक सूरि ने संस्कृत टीकाएँ लिखीं। इनका