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जैन-दर्शन और उसका आधार
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कारण होता है और प्रत्येक कारण किसी न किसी कार्य को उत्पन्न करता ही है। यह कारण और कार्य का पारस्परिक सम्बन्ध ही जगत् की विविधता और विचित्रता को भूमिका है। हमारा कोई कर्म व्यर्थ नहीं जाता । हमें किसी भी प्रकार का फल बिना कर्म के नहीं मिलता। कर्म और फल का यह अविच्छेद्य सम्बन्ध ही
आचारशास्त्र को नोंव है। यह एक अलग प्रश्न है कि व्यक्ति के कर्मों का समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है और समाज के कर्म व्यक्ति के जीवन-निर्माण में कितने अंश में उत्तरदायी हैं ? इतना निश्चित है कि बिना कर्म के किसी प्रकार का फल नहीं मिल सकता। बिना कारण के कोई कार्य उत्पन्न नहीं हो सकता । कर्मवाद का अर्थ यही है कि वर्तमान का निर्माण भूत के आधार होता है और भविष्य का निर्माण वर्तमान के अाधार पर । व्यक्ति अपनी मर्यादा के अनुसार वर्तमान और भविष्य को परिवर्तित कर सकता है, किन्तु यह परिवर्तन भी कर्मवाद का ही अंग है। जैन-परम्परा नियतिवाद (Determinism) में विश्वास न करके इच्छा-स्वातन्त्र्य (Freedom of will) को महत्त्व देती है किन्तु अमुक सीमा तक । प्राणी की रागद्वेषात्मक भावनाओं को जैनदर्शन में भावकर्म कहा गया है , उक्त भावकर्म के द्वारा आकृष्ट सूक्ष्म भौतिक परमाणु द्रव्यकर्म है । इस प्रकार जैनदर्शन का कर्मवाद चैतन्य और जड़ के सम्मिश्रण द्वारा अनादिकालीन परम्परा से विधिवत् अग्रसर होती हुई एक प्रकार की द्वन्द्वात्मक ग्रान्तरिक क्रिया है। इस क्रिया के आधार पर ही पुनर्जन्म का विचार किया जाता है। इस क्रिया की समाप्ति ही मोक्ष है । जैनदर्शन-प्रतिपादित चौदह गुणस्थान इसी क्रिया का क्रमिक विकास है, जो अन्त में प्रात्मा के असली रूप में परिणत हो जाता है। प्रात्मा का अपने स्वरूप में वास करना, यही जैनदर्शन का परमेश्वर-पद है । प्रत्येक आत्मा के भीतर यह पद प्रतिष्ठित है। यावश्यकता है उसे पहचानने की। 'जे अप्पा से परमप्पा' अर्थात् 'जो आत्मा है वही परमात्मा है'-जैन परम्परा की यह घोपणा साम्य