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________________ ( ४१ ) मासिक प्रगट होता था और श्रीयुत छोटालाल जैसे वाहोश, विद्वान और साक्षर के मंत्रीत्व में प्रकाशित होता था । वह मासिक गुजरात में अच्छी ख्याति प्राप्त कर चूका था । (२) वनस्पतिकाय को जैनशास्त्र एकेन्द्रिय जीव मानता है । जिसका निर्णय प्रो. बोझने प्रयोगों से जगत को कर दिखाया है और सिद्ध भी किया है कि जैसे अपने को सुख दुःख होता है उसी तरह उसको भी होता है । मनुष्य के सदृश कितनेक गुण वनस्पति में भी है । ' हास्यवन्ती' हसती है, 'रुदन्ती' रुदन करती है, लज्जावन्ती शरमाती है । इस तरह वनस्पति भी भिन्न भिन्न गुणयुक्त नजर आती है। जैनशास्त्र पृथ्वि-अपतेउ - वायु और वनस्पति आदि एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक- अर्थात् समस्त संसारी जीवों में आहार-निद्रा-भय और मैथुन ये गुण सामान्यतया मानता है । (३) कंदमूल आदि अभक्ष्य अनन्तकाय हैं । रजस् और तामस गुण के पोषक हैं । कारण यह है कि वे जमीन में पैदा होते हैं और वहाँ सूर्य का प्रकाश पहुँच नहीं सकता । इस लिए उस में जीव होते हैं ! इस बात का समर्थन सायन्स भी करता है । और इसी कारण से जैनशास्त्र उस को अभक्ष्य मानता हैं । आत्मार्थी जीव को तो वह अवश्य छोड देना चाहिए । पुराणों में भी उस का अच्छा उल्लेख है मगर शास्त्रों को देखने की 4 किस को गरज है ? कंदमूलादि अभक्ष्य पदार्थ विषयपोषक होते हैं । कितनेक चरबी - मेद को बढानेवाले होते हैं । कितनेक 1
SR No.010319
Book TitleJain Tattvasara Saransh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurchandra Gani
PublisherJindattasuri Bramhacharyashram
Publication Year
Total Pages249
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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