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हिंसा होती है । और आत्महिंसा का फल संसार में अनन्त समय तक चक्कर लगाने का होता है । और आत्महिंसा के त्याग के सिवाय कल्याण की अशा आकाशकुसुम के बरोबर है | यह लिखने का आशय केवल यही है कि हरएक को अहिंसा पालन में सावधान रहना चाहिए, अपनी आत्महिंसा न हो उस की हमेशां चिंता रखना चाहिए, जिस से मनुष्यभव की सार्थकता हो जाय ।
अहिंसापालक मर्द ही होता है । कायर या अधम लोग उस को स्पर्श भी नहीं कर सकते । मारना हरएक जानता है मगर मरना कम जानते है । दूसरे की खातर प्राण विसर्जन करना यही आत्म-सामर्थ्यवान का कर्तव्य है । और सत्य के खातर ही समर्पण करने में आत्मविभूति है । हमारे कितनेक गुर्जरसाक्षर भाई जैनों की अहिंसा को अनादर की दृष्टि से देखते हैं मगर वार्त्तमानिक परिस्थिति को देख कर वे समज गये होंगे कि अहिंसा क्या चीज है ? अहिंसा का पालन कौन कर सकता है ? निर्बल या सवल ? | हमारे सुभाग्य से, देश और विश्व के सौभाग्य से आज वह परम धर्म जगप्रसिद्ध हो गया है । और अन्त में प्रभु महावीर के इस अमोघ धर्मोपदेश से जगत् अपना कल्याण करे यही हमारी इष्टदेव को विति है ।
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