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(३७) नहीं जायगा वहाँ तक फंसता रहेगा। इसलिए आत्मार्थी को चाहिए कि हमेशां अहिंसा का पालन करें । अहिंसा से ही भवरुपी अरण्य नष्ट होगा । संसार में कोई ऐसा उच्च पद नहीं है, कोई स्थिति या सिद्धि नहीं है कि जो अहिंसक प्राप्त न कर सके । और जो अहिंसा अनेक भव में भी दुर्लभ मोक्षसंपत्ति को दिलाने के लिए समर्थ है अगर उस से स्वराज्य या तुच्छ ऐसी राजलक्ष्मी मिल जाय तो आश्चर्य क्या है ?
अपना प्यारा आर्यावर्त पुराने जमाने में अहिंसा के उच्च तत्त्वों के पालन से ही उन्नत था । मगर जब वे तत्त्व हमारे व्यवहार में से कम हुए तब ही हमारी अधोगतिने यहाँ अपना अड़ा जगाया है। ,
प्रकृति से ही हमारा स्वभाव दूसरे का घर जलता हो तो बचाने का है । यद्यपि यह परमार्थ अच्छा है, मगर हमारा घर कहाँ कहाँ जल रहा है उस की भी परवा करनी चाहिए । अर्थात् पर जीवों को बचाना यह सत्कार्य है मगर
हम हमारी आत्मा की जो हिंसा करते हैं और उस की परवा . नहीं करते वही शोच की कथा है और यही बात अहिंसा विषयक
हमारी अज्ञानता बताती है। बाकी सच्चा अहिंसक कभी असत्य कह कर दूसरे को दगा नहीं देता, छल-प्रपच से दूसरे को ठगता नहीं। किसी भी कषायों में ज्यादह फँसता नहीं और कभी विश्वासघात करता नहीं । संक्षेप से वह कभी किसी के ... दिल को दुःखी नहीं करता । वह जानता है कि इस में आत्म