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को देख कर वैराग्नि अडकने लगी। " इसी दुष्टने मेरी बेटी का त्याग किया है और उस बिचारी को परेशान कि है " एसा विचार कर के मुनिवर्य जव तपश्चर्या में थे तब उन के मस्तक पर आग से भरी सिगडी रख दी । मुनिजी शोचने लगे-- "अहा ! यह सज्जन मेरे कैसे उपकारी है ! संसार में तो उन्होंने । मुझे कुछ भी नहीं दिया मगर आज तो उन्होंने मेरे शीर पर मुक्ति का ताज पहिना दिया।” कैसी उदात्त भावना ? इस तरह जव विलकुल अहिंसक वृत्ति पैदा होती है और संकट की झड़ियाँ वरसने पर भी जो कभी क्रोध नहीं करता और दयाकी भावना करता है तव ही वह महापुरुष हो सकता है और वह जगवंद्य हो सकता हैं। जिन्होंने कर्म का स्वरूप पहचाना है, आत्मशक्ति
और सामर्थ्य का अनुभव किया है वे तो समजते हैं कि जितने जड कर्म नष्ट होंगे उतनी अज्ञानता का लोप होगा। जितनी पाशववृत्ति कम होगी उतनी आत्मप्रभा ज्यादह फैलेगी। जितना संयम ज्यादह होगा उतना ही श्रात्मसामर्थ्य ज्यादह होगा। इस लिए इस भव में, परभव में या भवोभव में भी कभी हिंसा का आश्रय नहीं लेना चाहिए। उस का संकल्प भी. छोडना चाहिए । उस में भी जो व्रतधारी हैं, सत्यव्रत के पालक हैं उन को तो सत्य के लिए शारीरिक कष्टों को हँसते हँसते सह लेना चाहिए | और हिंसा का कभी आचरण करना नहीं चाहिए । श्रात्मा तो अमर है । वह कभी मरता नहीं। . शरीर तो वस्त्रादिक की तरह अनित्य है। आत्मा सहस्रों भवरुप बंधों में फंसता आया है और जब तक सत्यमार्ग को