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( २५ ). पद दिया है । विना समभाव मोक्षप्राप्ति की आशा वह आकाशकुसुम के समान है। इसलिए मोक्षार्थी जीवों को चाहिए कि वे प्रथम समभाव की साधना करें। और वही प्रयत्न हितावह भी है। और वह भी सत्य ही है कि जो समताध्यानादिसे पूर्णानंद प्राप्ति के उपायों में प्रयत्नवान हैं वेही कर्मरुपी मलसे रहित होते हैं । और अन्तमें शिव-वरमाल को धारण करते हैं । मनुष्य जब समतारुप सुंदर सरितामें स्नान करता है तब ही उसके दिलके मलिन विचार-वासनाओं का लय होता है और भी मनुष्य जब अभेद्य समता के कवच को धारण करता है तब ही वह दुःखोंसे पर हो जाता है और देव, देवेन्द्रों की समृद्धि को इसी संसारमें पाता है । वह अपने आप को सबसे पर समझ कर विषाद के समय उदासी, हर्ष के समय आनंदी नहीं होता। वह समभाव को प्राप्त करता हुआ चिदानंदवृत्तिमें मग्न हो जाता है।
जिसका मन समतारुप अमृतसे प्लावितयुक्त होता है उसको रागद्वेपरुपी नागाधिराज के जहर की वर्षा कुछ भी नहीं कर सकती । इसतरह जहाँ समवृत्ति की प्रधानता है वहाँ ही आत्मिक आनंद भी होता है। सांसारिक लालसाओं को 'धूत्कार के समान्वित मनुष्य ही विजेता हो सकता है । समभाव के 'सम' शब्दमें वडा ही महत्व और गांभीर्य भरा है। उसका वास्तविक अर्थ यह है कि-जिस आत्माके ज्ञानका 'परिपाक निरभिलाषा को प्राप्त हुआ है अर्थात् जो शुभ अशुभ