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________________ ( २४ ) श्वेताम्बर हो कि दिगम्बर हो, बौद्ध हो कि अन्य मार्गानुगामी हो, परन्तु जिसका आत्मा समभावमें रमण करता है वह निश्चयसे मोक्ष को पाता है। इस में कोई संदेह नहीं है । इस परसे स्पष्ट होता है कि मोक्ष का मार्ग किसी का रजिस्टर्ड ( Registered ) नहीं है। कहावत है कि-"धारे उसका धर्म, मारे उसका हथीपार" । जो आत्मार्थी जन होता। है वह हमेशां हंसक्षीरनीर विवेक की तरह मिश्र दूध और जलरुपी तत्त्वातत्त्व से दूधरुपी तत्त्व को अलग कर लेता है और अतत्त्वरूपी जल त्याग देता है। सांसारिक-मायापूर्ण लालसाओं को छोड कर वे अपने आत्माका उद्धार साधते हैं, और धर्म के नामसे अधर्म की जालमें फंसकर अधर्माचरण नहीं करते । संपूर्ण विश्व के प्रत्येक धमाने मनुष्यभव की दुष्प्राप्यता बत लाई है । और वह मनुष्यभव सार्थक करनेकी और सत्यमार्ग को जाननेकी एकमात्र चावी 'समभाव' है । हम नित्यप्रति अनुभव करते हैं कि समुद्र जब भरती की ओर होता है तब जल की उठती लहरोंमें हम उस के उदर की रत्नराशि को नहीं देख सकते मगर जव. वह शान्त होता है तब हम उस रत्नराशि को अच्छी तरह देख सकते हैं। उसी तरह मनरुपी सरोवर वासनाओं की लहरोंसे अशान्त होता है तब हम अन्तर आत्मा को पहचान नहीं सकते । मगर मनोवृत्तियाँ शान्त होने पर ही हम समभाव को प्राप्त कर आत्मा के शुद्ध स्वरुप को जान सकते हैं। समभाव मुक्तिमहेल का प्रथम दरवाजा है और इसीलिए जैन शास्त्रकारों ने सामायिक को प्रधान
SR No.010319
Book TitleJain Tattvasara Saransh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurchandra Gani
PublisherJindattasuri Bramhacharyashram
Publication Year
Total Pages249
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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