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( ११ ) अनेक दृष्टिविंदु से देखने की शिक्षा देता है । परिणाम यह आता है कि वस्तुमात्र का सत्य स्वरुप उनकी नजर के सामने खडा होता है और जगत के समस्त पदार्थोंमें यानि आकाश से ले कर दीपक पर्यन्त अपने देख सक्ते हैं कि सापेक्ष रीति से नित्यत्व, अनित्यत्व, प्रमेयत्व, वाच्यत्व आदि अनेकः धर्म उनमें रहे हुए हैं।
इस तरह सापेक्ष दृष्टिसे देखा जाय तो तमाम वस्तुओं में अनेक धर्म रहे हुए हैं। श्रीमद् उमास्वाति वाचकने द्रव्य का लक्षण " उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् "..---उत्पाद (उत्पन्न होना) व्यय (नाश होना ) ध्रौव्य (स्थिर रहना ) यह लक्षण बताया . है। और कोई भी द्रव्य के लिये यह लक्षण निर्दीप माना गया है। इस लक्षण को जीव द्रव्य पर स्याद्वाद दृष्टि से घटाना उपयुक्त होगा। यद्यपि द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से आत्मद्रव्य नित्य है, परन्तु पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से आत्मद्रव्यको अनित्य भी मानना पडता है। उदाहरणार्थ-मनुष्य जब एक गति को छोड कर अन्य गति को प्राप्त करता है तब मनुष्य पर्याय का नाश होता है और अन्य गति के पर्याय की उत्पत्ति होती है, परन्तु दोनों गतिमें चैतन्य धर्म तो स्थायी रहता है। अतः आत्मामें कथंचित् नित्यत्व और कथंचित अनित्यत्व का स्वीकार अवश्य करना पडता है । इसी तरह जड पदार्थ का भी उदाहरण लीजियेः सुवर्ण के कुंडल को तोड कर एक हार बनवाया, तो उनमें कुंडल के जो पर्याय थे उन का नाश हुआ और हार के पर्याय की उत्पत्ति हुई। दोनोंमें मूल