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________________ अपने आर्यावर्त्तमें यानि भारतवर्ष में मुख्यतः सांख्य, . वेदान्त, वैशेषिक, नैयायिक, बौध, मिमांसक, लोकायतिक- . चार्वाकादि दर्शनों के विचारों एक-दूसरे के निरपेक्षभावसे उत्पन्न हुए है । जब कि जैनदर्शन ही एक ऐसा दर्शन है जिनमें सर्व नयों की सापेक्षता का संपूर्ण ध्येय द्रष्टि सन्मुख रखा गया है । अथवा यो कहिये कि जैनदर्शनरूप समुद्र में सर्व नयरुपी तटिनी ( नदीयां ) अन्तर्भाव को प्राप्त होती है । जैन सिद्धान्त के पारंगत षड्दर्शनवेत्ता अलख अवधूत योगी श्रीमद् आनंद धनजी महाराज-जो कि बहुधा अरण्यमें ही निवास करते थे-श्री नेमिनाथ प्रभु के स्तवन में कहते हैं कि " जिनवरमां सघळां दर्शन छे, दर्शने जिनवर भजना रे सागरमां सघळी तटिनी सही, तटिनीमा सागर भजना रे ॥ १॥ भावार्थ:-श्री नेमीश्वर प्रभु के दर्शनमें-जनर्दशनेंमें सर्व दर्शनों का समावेश हो जाता है अतः वे सब दर्शनों प्रभु. के अंग हैं । भिन्न २ एक २ अन्य दर्शनमें सर्वांगी सत्ता द्रष्टिगोचर नहीं होती अर्थात् एकांगी सत्ता होने के कारण ही तदंशे जिनवर भजना कही है। जैसे समुद्र में सर्व नदीयां वह काटा हुआ अङ्ग वास्तवमें अनरुप नहीं माना जाता उसी तरह सर्वे नय-विचार जव तक सापेक्षभाव से परस्पर वर्तते हैं तव तक वे अङ्ग है। . (विजयोदयसूरिजी)
SR No.010319
Book TitleJain Tattvasara Saransh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurchandra Gani
PublisherJindattasuri Bramhacharyashram
Publication Year
Total Pages249
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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