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________________ ( ३ ) करने के लिये जैनदर्शनमें स्याद्वादधर्म का आधुनिक पद्धति से एसा निरुपण किया गया है कि जिन को मात्र एक वख्त द्रष्टिगोचर करना ही काफी है। ___ " जैनधर्म यह धर्मविचार की निःसंशय परमश्रेणी है और उस द्रष्टि से केवल धर्म का वर्गीकरण (पृथक्करण ) करने के लिये नहीं; परन्तु विशेषतः धर्म के लक्षण नियुक्त करने के लिये और तदनुसार सामान्यतः धर्म की उत्पत्ति जानने के लिये उन का खूब मननपूर्वक अभ्यास करना आवश्यक है।" जैनधर्म का मन्तव्यः जैन शब्द की उत्पत्ति इस तरह हो सक्ती है:-जि-जये यानि जि धातु का अर्थ जय प्राप्त करना-जितना ऐसा होता है । अर्थात् जैन शब्द का अर्थ जितनेवाला या विजेता ऐसा होता है । यदि विस्तार से अर्थ किया जाय तो जैन शब्द का अर्थ पांच इन्द्रियाँ और चार कषाय आदि आत्मशत्रुओं को जितनेवाला, माया का उन्मूलन करनेवाला, अविद्या का नाश करनेवाला, मैं और मेरा यह मोहजन्य सांसारिक भावों से पर रहनेवाला होता है। जैनधर्म में जगत की मोजमजाह या भोग-विलास का स्थान नहीं है। परन्तु वह वैराग्यमय अमृतरस का पोषक है। जगत के आधि-भौतिक सुखों को वह हमेशां दूर ही रखता है। कारण कि इन्द्रियजन्य जो सुख "माने गये है वह मोहराजा के खास अनुचर है और वे हमेशा
SR No.010319
Book TitleJain Tattvasara Saransh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurchandra Gani
PublisherJindattasuri Bramhacharyashram
Publication Year
Total Pages249
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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