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था। हजारों वर्ष पर भारत सैंकडो देशों पर शासन करता था। उस भारतकी स्वतंत्रता के लिये नवयुवकोंको उस प्राचीन गौरव को अपनाना हि होगा, उन्हें बडे २ महात्माओंका चरित्र और तत्वज्ञान के ग्रन्थ पढना होगा। संसारमें बहुत से छोपे रत्न है, लेकिन जब तक उन को शोधने का प्रयत्न नहीं होगा वहां तक उन की इच्छा रखना मानो आकाश कुसुमको प्राप्त करना बराबर है। उपरोक्त ग्रन्थ भी छीपे हुए रत्नोंमें से एक है, उस का जितना ज्यादा प्रचार उतना ही तत्त्वज्ञानका ज्यादा प्रचार यह निर्विवाद है।
गुजराती भाषा में इस ग्रन्थ की प्रथमावृत्ति की २००० कापियाँ प्रगट की थी। लोकोपयोगिता के कारण से उसी भाषा में दूमरी आवृत्ति भी प्रकाशित की गई। लेकिन मारवाड और मेवाड आदि प्रदेशों में भी इस की उपयोगिता समझ कर इस का हिन्दी संस्करण प्रगट करना उचित समझ कर वाचकगणके: सामने यह तत्त्वविषयक ग्रन्थ पेश करता हूं, आशा है कि, उसको सहर्ष स्वीकार करेंगे ।
गुजराती में प्रथमावृत्ति प्रगट होने के बाद वर्तमानपत्रों में उक्त ग्रन्थ की अच्छी समालोचना प्रगट हुईथी। जिसको हमने जैन पत्र के साथ हेन्डबील के रूप में प्रकाशित की थी, इसी ग्रन्थ की द्वितीयावृत्ति प्रगट करने का प्रसंग आया, तब उस के फॉर्म जैन शास्त्र के ज्ञाता विद्वान् सुरत निवासी रा. रा. सुरचंद्र पी. बदामी रीटायर्ड जज साहब को अवलोकन करने के लिये भेजे गये थे. अवलोकन करने के बाद उस महाशयने जो अभिप्राय भेजा था उस को द्वितीयावृत्ति में प्रगट कीया है। वांवको के लिये उपयोगी होने के वजहसे उसको यहां पर प्रगट करता हूं।