SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 168
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ । ६२ है और मृत्यु जैसी भयदायक और अन्य कोई चीज नहीं है तथा ऐसे महत्पुण्य के भोग के समय ऐसा होना युक्त भी नहीं है इन कारणों से पूजादि का पुण्य प्रायः परभव में फलता है। जैसे अनेक प्रकार के परिश्रम सहन कर के पैदा कीयी हुई चीज अनेक प्रकार से उपभोग में आने पर भी क्षय नहीं होती ऐसे पूजादि का फल भोगने पर भी प्रायः अन्य जन्म में वह दय में आता है। अति उग्र पुण्य साक्षात् यहाँ ही फलदायक होता है। देखो ! संसार में कहा जाता है कि जो सत्यवादी होता है वह . कैसे भी दिव्य में से ( भयंकर प्रतिज्ञा) कंचन की तरह शुद्ध निकल जाता है । जैसे कोई शुद्ध सिद्धपुरुष को या साधुपुरुष को स्वल्प भी दिया हो तो सकल पदार्थ की सिद्धि के लिए होता है अर्थात् इस लोक श्चौर परलोक के लिए सुख का कारणभूत और अनुक्रम से भवबन्धन से भी मुक्त होने के लिए साधन होता है। और जैसे किसी अनुत्तर ( सर्वोत्तम ) राजपुत्रादि को किसी समय स्वल्प भी दिया हो तो देनेवाले की इष्ट सिद्धि होती है। विशेष क्या ? दुष्ट प्रतिपक्षी के प्राणघातक कष्ट में से भी वह रक्षण करता है इसी तरह किसी समय पूजादि स महत्पुण्य उपार्जन किया हो तो वह इस लोक में और -- परलोक में सत्य सुख की परंपरा प्राप्त करवाने के लिए , समर्थ होता है । शालिभद्र के जीव की तरह अथवा :
SR No.010319
Book TitleJain Tattvasara Saransh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurchandra Gani
PublisherJindattasuri Bramhacharyashram
Publication Year
Total Pages249
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy