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(१२५) भूगोल से तद्गत् बुद्धि होती है, लोकनालि से लोकरचना समज में आती है। कूर्मचक्र, अहिचक्र सूर्य कालानलचक्र, चंद्रकालानलचक्र और कोटचक्र आदि आकृतियाँ से यहाँ रहते हुए भी तत्सम्बन्धि ज्ञान होता है । शास्त्र विषयक वर्षों के न्यास से ( स्थापना से ) इस वर्ण के दृष्टा को शास्त्र का बोध होता है। नंदीश्वरद्वीप के चित्र से और लंका के पट से तद्गत वस्तु का ज्ञान होता है। ऐसे ही स्व इश की प्रतिमा उन के गुणों की स्मृति के लिए होती है। जो चीज साक्षात् दृश्य नहीं होती उस की स्थापना की जाती है यह लोकप्रसिद्ध है। दृष्टान्त यह है कि-सति स्त्री जब पति परदेश को गया होता है तब प्रतिदिन उस की प्रतिकृति के दर्शन करती है।
रामायण में भी आता है कि-श्री रामचन्द्र बन को गये तब उन की पादुका को भरतजी राम की तरह पूजते थे। सीताजी भी राम की मुद्रिका का मुकुट रत्न मिलने से रामदर्शन के समान प्रसन्न हुए थे । इन सब दृष्टान्तों में कहाँ भी शरीर का आकार न था । तथापि उन अजीव पदार्थों से तथा प्रकार का सुख होता है तो परमात्मा की प्रतिमा भी अपूर्व सुख की देनेवाली क्यों न हो ? - पाण्डव चरित्र में लोकप्रसिद्ध कथा है कि द्रोणाचार्य की . प्रतिमा के पूजन से लब्ध नामक भिल्ल बालकने अर्जुन के समान धनुर्विद्या प्राप्त कीयी थी। चंचादिकं (खेत में पक्षी आदि को डराने के लिए पुरुपाकृत्ति रक्खी जाती है वह ) अजीव वस्तु भी क्षेत्रादि की रक्षा करने में समर्थ होती है।