SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 147
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५ वाँ अधिकार. wy G स्वर्गादि प्रत्यक्ष नहीं है किन्तु विद्यमान अवश्य हैं । प्र० जो ग्राह्य होता है उस को इन्द्रियाँ ग्रहण कर सकती है । और जो नहीं होता उस को नहीं ग्रहण कर सकती, यह बात दृष्टान्त से स्पष्ट कीजिए । ३० मनुष्य शरीर के पृष्ठ भाग में स्थित तिल, भृंग या स्वस्तिकादि चिह्नों को स्वयं अपनी इन्द्रियों से नहीं देख सकता | किन्तु अन्य मनुष्य के कहने पर उन चिह्नों का होना सत्य मानता है । अनेकों प्रयत्न करने पर स्व इन्द्रियाँ से उन चिन्हों को नहीं देख सकते इसी तरह स्वर्ग-नरकादि के होने पर भी - इन्द्रियों से अग्राह्य होने से हम नहीं देख सकते । प्र० शरीर के पृष्ठ भाग के चिह्नों का निश्चय तत्प्रकार के परिगाम से ( फल ) होता है वैसे ही क्या किसी भी चेष्टा विशेष से स्वर्ग-नरकादि का बोध हो सकता है ?
SR No.010319
Book TitleJain Tattvasara Saransh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurchandra Gani
PublisherJindattasuri Bramhacharyashram
Publication Year
Total Pages249
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy