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________________ ' ( ९६ ) प्र० जीव सुखी - दुःखी अनेक प्रकार के नजर आते हैं तो उन भेदों को करनेवाला कोई अन्य या ब्रह्म होने चाहिए । ॐ० अगर जीव ब्रह्म से भिन्न हो और सुख-दुःख का कर्त्ता ब्रह्म हो तो जिस हेतु से ब्रह्म सुख - दुःख करता है इस हेतुका कर्ता भी ब्रह्म ही होना चाहिए । • सारांश - संक्षेप में ब्रह्म को निरंजन, नित्य, अमूर्त और अक्रिय कथन कर के फिरसे उस को कर्ता - संहर्ता और रागद्वेषादिका पात्र कहना यह परस्पर विरुद्ध है । इसी से मुनियोंने सोचा कि जगत् भिन्न है और ब्रह्म भी भिन्न है और इसी लिए संसारस्थित मुनि मुक्ति के लिए परब्रह्म का ध्यान करते हैं । प्र० ईश्वर की ( विष्णुकी ) माया जगत् रचना में हेतुभूत है या नहीं ? उ० नहीं, वैसा हो नहीं सकता । अगर ऐसा कहोगे तो क्या ईश्वर माया के आश्रित है या माया ईश्वर के आश्रित है ? और माया स्वयं जड होने से आश्रय नहीं ले सकती तथा ईश्वर परब्रह्म स्वरूप होने से माया का आश्रय नहि लेता । प्र० ईश्वर उस के सेवकको सुखी करता है और जो सेवक नहीं है उनको दुःखी करता है यह बात क्या सत्य है ? उ० ना, यह असत्य है अगर ईश्वर ऐसा करेगा तो वह स्वयं .... रागी और द्वेषी हो जावेगा । और जो उस की सेवा भी नहीं करता और निंदा भी नहीं करता उस की क्या गति *
SR No.010319
Book TitleJain Tattvasara Saransh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurchandra Gani
PublisherJindattasuri Bramhacharyashram
Publication Year
Total Pages249
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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