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________________ ( ८७ ) है और क्या ग्रहण करने का है इन विचारों से रहित होता हुआ इन्द्रियों के विषय में आसक्त होनेसे कर्मबन्ध होता है। प्र० आत्मा मुक्त कैसे होता है ? उ० अन्तरात्मा से हेयोपादय के विचार के साथ विषयसुख से पराङ्गमुख होता है अर्थात् संसार की हरएक चीज से राग द्वेष को छोड़ देता है और तब संसार में रह ने पर भी वह मुक्त होता है और तब वह अन्तरआत्मा को केवलज्ञान प्रगट होने से परमात्मदशा को पहुँच जाता है। प्र० जब आत्मा यह भ्रम से रहित होती है तब उस की दशा कैसी मुक्त होती है ? उ. जब आत्मा भ्रम से रहित होता है तब वह संपूर्ण ममत्व भाव से दूर होता है। मन-शरीर-सुख-दुःख और विचार से वह शून्य होता है । मुक्त होने से पुण्य-पाप नहीं लगते । मन विजित होने से उसको यह मेरी क्रिया-यह मेरा काल-यह मेरा संग-यह मेरा सुकृत इत्यादि के भेद भी नहीं होते। प्र० मुक्त आत्मा जब तक शरीर को धारण करता है तब तक . उस को कोई क्रिया होती है या नहीं ? . इस लोक में जब तक होता है तब तक उस से सूक्ष्म क्रियाओं होती हैं अर्थात् वह निष्क्रिय नहीं होता । यह सूक्ष्म क्रियाओं से जब वह मुक्त होता है तब वह सिद्ध होता है।
SR No.010319
Book TitleJain Tattvasara Saransh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurchandra Gani
PublisherJindattasuri Bramhacharyashram
Publication Year
Total Pages249
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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