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________________ सकते हैं । अग्निभक्षक चकोर पक्षी को अग्नि अपना स्वभाव बदल देने से नहीं जलाती। लोहचुम्बकपाषाण में लोहग्रहण करने का स्वभाव है। मगर अग्नि से जब वह मारा जाता है या उस के दर्प को हरण करनेवाली कोई औषधि से संयुक्त किया जाता है तब उस का लोहग्रहण करने का स्वभाव नष्ट हो जाता है। वायु का प्रकृतिसिद्ध स्वभाव चंचल है परन्तु जब मशक आदि में निरुद्ध किया जाता है तब वह स्वभाव चला जाता है। अग्नि का स्वभाव जलाने का है परन्तु अभ्रक, सुवर्ण और रत्नकम्बल तथा सिद्ध पारद को नहीं जलाती तो उस का दाहक स्वभाव उस समय कहाँ जाता है ? सारांश-पारद, लोहचुम्बक, अग्नि आदि में अमूक क्रिया करने पर जैसे मूल स्वभाव नष्ट हो जाता है वैसे जीव का कर्मग्रहण स्वभाव सिद्धदशा में चला जाता है तो क्या पाश्चर्य है ?* प्र० सिद्धजीव में कर्मवन्ध कैसे नहीं होता ? उ० धान्यादि का बीज जलने पर जैसे अंकुरोत्पत्ति नहीं होती वैसे कर्मवीज जलने पर कर्मबन्ध नहीं होता। * शुकादि मुनिगण आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये चार मूल संज्ञाभों का त्याग कर के परब्रह्मरूप सिद्ध हुए है। . शंववत् ।'
SR No.010319
Book TitleJain Tattvasara Saransh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurchandra Gani
PublisherJindattasuri Bramhacharyashram
Publication Year
Total Pages249
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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