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(४३) इस कारण से नय की अपेक्षा से विचार करना योग्य है। चित्त, वित्त एवं पात्र शुद्ध निर्वद्य दान से तो एकान्त *पुण्य होता है तथा दूसरे स्थानों पर यथा योग्य पुण्य की न्यूनाधिकता समझना चाहिए । ___ ग्रंथों में पांच प्रकार के पात्र बताये हैं यथा (१) उत्तम पात्र-साधु (२) मध्यम पात्र-श्रावक (३) जघन्य पात्र-अवती सम्यक दृष्टि (४) अपात्र-मिथ्यात्वी एवं (५) कुपात्र-अनार्य हिंसक । इन पांचों में उत्तम पात्र को दान देने से एकांत पुण्य, मध्यम पात्र एवं जघन्य पात्र का दान सुपात्र दान में है, परन्तु कुछ पाप का मिश्रण है । अपात्र दान में अनुकम्पा की अपेक्षा से तथा ममता घटने की अपेक्षा से पुण्य का मिश्रण है। कुपात्र दान में एकान्त पाप है। परन्तु साधु को तो बीच वाले तीनों स्थानों के लिए मौन साधना श्रेय है । पुण्य पाप कहना अनुपयुक्त है । यहां कोई इस प्रकार कहे कि 'श्री वीतराग देव ने तो नो प्रकार के पुण्य समुच्चय रूप से सब जीवों की अपेक्षा से बताये हैं किन्तु किसी प्रकार के भेद नहीं कहे हैं। इसका उत्तर ऐसे देना चाहिये कि यदि वीतराग देव ने नौ प्रकार के पुण्य कहे हैं तो फिर तुम अन्य गृहस्थ के दान के लिए मौन क्यों रखते हो ? वहां पुण्य क्यों नहीं
ग्रन्थकार ने एकान्त पुण्य बताया है किन्तु आगम वचनानुसार चित्त वित्त एव पात्र शुद्ध निर्वद्य दान से एकान्त निर्जरा होती है।