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(४२) आवे जीव को सुख आनन्द उपजावे तव उन्हें भाव पुण्य कहते हैं । जिस प्रकार जिन नाम दिया उन्हें भाव तीर्थङ्कर कहा इसी दृष्टान्त से ये मुख्य नय में द्रव्य पुण्य व भाव पुण्य ये दोनों रुपी द्रव्य पुद्गल कहलाते हैं। श्री आचारांग सूत्र की टीका में भी द्रव्य कम को अनोदय प्रकृति का द्रव्य कर्म वे कृषादि क्रिया भाव कर्म के उदय में आई प्रकृति कही है । फिर सूत्रों में कई स्थानों पर पुण्य पुद्गल को ही कहा है । जिस कारण से मुख्य नय में पुण्य को रुपी पदार्थ जानो उपचार से तो दोनों श्रद्धा योग्य है।
अब पुण्य के भेदा का पारचय कराते है। श्री ठाणाङ्ग सूत्र के नवमें ठाणे में कहा है कि 'नव विहे पुन्ने पन्नते तं जहा- अन्नपुन्ने जाव नम्मोकार पुन्ने अब इनका अर्थ कहते हैं । पात्र को अन्नादि देने से तीर्थङ्कर नाम आदि पुण्य प्रकृति का बन्ध होता है और दूसरे को देवे तो दूसरी पुण्य प्रकृति का वन्ध होता है। यहां कई एक इस प्रकार कहते हैं कि 'ये नौ प्रकार के पुण्य तो साधुओं के लिए ही है, परन्तु अन्य की अपेक्षा से नहीं' तथा कई लोग इस तरह भी कहते हैं कि 'ममकित दृष्टि की अपेक्षा से है किन्तु मिथ्यात्वी की अपेक्षा से नहीं' तथा कई एक इस प्रकार कहते हैं कि ' सब संसारी की अपेक्षा से है। इस प्रकार यहां अनेक मंतव्य जान पडने हैं। परन्तु निस्पृह भाव से पक्षपात रहित बन सूत्र का अर्थ विचारें तो सर्व नय की अपेक्षा रखते हैं । जैन शासन तो सात नयात्मक है।