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( २२ )
वहां वस्त्र नहीं, जहां फटा हुआ है वहां छिद्र है उसी प्रकार जहां जीवत्व नहीं है वहां आश्रव कहते हैं । इसीलिए ठाणांग सूत्र के छ ठाणे में छः प्रकार से 'अणतEओ' अहंकारी अहितकारी होता है, वहां अहंकार में अनात्मा कहना चाहिए, जिस कारण से शुद्ध रूप है वह आत्मा ज्ञानादि रूप है एवं अशुद्ध है वह अनात्मा अज्ञान है, क्रोध, मद आदि । फिर भी वह अज्ञान जीव का परिणाम आत्मा है लेकिन अशुद्धपन से अनात्मा कहलाता है उसी प्रकार भाव आश्रव जीव का परिणाम है परन्तु अशुद्धपन से जीव का निज गुण छोड़ने योग्य नहीं है इस कारण से अनात्मा भी जीव कहलाता है । यहां पर भी दो नय (न्याय) लागू हो मकते हैं (व्यवहार नय एवं निश्चय नय) फिर तत्वज्ञ जाने । अव संवर तत्त्व को जानने के लिए चार दृष्टांत कहते हैं(१) जिस प्रकार तालाब में नाले (आव) द्वारा आंते हुए पानी को रोके उसी प्रकार जीव में आश्रव द्वारा आते हुए कर्म को रोके तो संघर ।
( २ ) जिस प्रकार भवन का द्वार बन्द करे उसी प्रकार जीव के आश्रव बन्द करे तो संवर ।
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( ३ ) जिस प्रकार नाव के छिद्र को बन्द करे उसी प्रकार जीव के आश्रव को बन्द करे तो संवर ।
(४) जिस प्रकार सूई के नाके को रोके उसी प्रकार जीव के आश्रव को रोके तो संबर |
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