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इन्हें शुद्ध अध्यवसाय रूप भाव संवर कहते हैं, यह तो
औपचारिक नय की अपेक्षा कहा है। मुख्य नय में संवर जीव का निज गुण है, जीव परिणाम है, इसलिये संवर अरूपी है, कर्म को संवर नहीं कहते हैं, इस अपेक्षा से द्रव्य संवर के तेरह भेद कहें । उपयोग रहित जो संवर पढ़ कर मान हो वह आगम से द्रव्य संवर कहलाता है। श्री अनुयोगदार सूत्र में 'अणुवमोगो दब्ब' इत्यादि नो आगम से १ जाणग शरीर २ भाव्य शरीर पूर्व के समान ३ तदव्यति रिक्त के तीन भेद १ लौकिक में, अपने कुल में जिस वस्तु से निवर्त वह लौकिक द्रव्य संवर । २ पर पाखंडी अपने मत से तथा हिंसादि से निवर्ते उसे कुप्रावचनीक द्रव्य संवर कहते हैं । ३ जैन मत में मिथ्यादृष्टि निव वगैरह तथा पासत्यादि व्रत पालते हैं उसे लोकोत्तर द्रव्य संवर कहते इ 'अप्पहाणे विसदो' इति वचनात् तथा जो साधु साध्वी, श्रावक श्राविका,समकित दृष्टि, सम्यकत्व व्रत आदि उपयोग सहित पाले वह भाव संवर है. पूर्व में जो मिथ्यात्वमोहनी कम का बंधन किया है उनका उपशमन करे क्षमोपक्षम करे तथा भय करे, एवं सम्यकत्व प्राप्त करे उसे संवर कहते हैं मिथ्यात्व से जो कर्म आते थे उन्हें रोके इसलिए संवर कहते हैं, ऐसे अप्रत्याख्यानी प्रत्याख्यानी की चोकड़ी को त्यागे जिससे खाने, पीने, उठने, बैठने प्रमुख परिग्रह की