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शय्यान्तर किसका टालते हो ? उन्हें ऐसा पूंछे कि आप उपाश्रय, धर्मशाला में उतरते हो तब शय्यांतर किसका टालते हो ? तब चै कहे कि हम तो एक घर टालते हैं, जैसेतुम एक घर, टालते हो उसी प्रकार हम भी एक घर टालते हैं।
फिर श्री बृहत्कल्प सूत्र में दो, तीन, चार पांच का सम्मिलित स्थान हो वहां एंक का शय्यांतर टालने का कहा है, फिर उस स्थानक को कोई आधाकर्मी मानते हैं, उन्हें झूठ लगता है क्योंकि आधाकर्मी तो एकान्त साधु निमित्त बनाया हुवा होवे वह कहलाता है, परन्तु ये स्थानक तो स्वयं के लिये कराते हैं उसमें किसी समय साधु भी रहते हैं जैसे गृहस्थी आहार भी स्वयं के लिये बनाता है पर उसमें से किसी समय साधु भी बहरते हैं उसमें दोष नहीं ? परन्तु साधु का भाव न मिलाये फिर अन्नादि उत्पन्न करते समय भी ऐसा जानते हैं कि मैं भी खाऊंगा तथा कोई साधु पधारेंगे तो भावना फलेगी उसमें दोष नहीं है, दोष तो साधु के लिये ही करेंगे तब लगेगा साधु तो मन, वचन, मन, वचन, काया से भी अनुमोदन नहीं करते हैं करेंगे तो भारी दोष लगेगा, परन्तु आंधाकर्मी तो नहीं कहलाता, फिर श्री आचारांग सूत्र के दूसरे श्रुतस्कन्ध में कहा है कि सांधु के लिये छावे, लीपे, दले,
ढोले,
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