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किया। पूर्व कोटि का त्रिभाग उसमें सम्मिलित नहीं है । इस प्रकार इस बात को बतलाने के लिए ही यहाँ सूत्र में उत्कृष्ट आवाधा पूर्व कोटि का विभागप्रमाण ही कही है।
__अब सवाल यह है कि जिस जीव ने भुज्यमान आयु के पूर्व कोटि का विभाग शेष रहने पर (आबाधाकाल को सम्मिलित कर) ३३ सागरोपम उत्कृष्ट स्थितिवन्ध किया है, वह पावापाकाल के पूरा होने पर ही मरेगा या वीच में ही विषभक्षण आदि से पूर्व कोटि के विभाग शेप रही भुज्यमान आयु को घटाकर कभी भी मर सकेगा । सवाल महत्व का है, इसका समाधान करते हुए आचार्य पुष्पदन्त-भूतबलि कहते हैं
आवाधा ।। २४ ॥ घ० पु०६ पृ० १६८ वह आवाधाकाल सब प्रकार की बाधाओं से रहित है। इसी बात को धवला में इन शब्दों में स्पष्ट किया गया है
पुन्वुत्तावाधाकालन्मंतरे णिसेयहिदीए वाधा पत्ति । जघणाणावरणादीणं आवाधापरूवसुत्तेण बाधाभावो सिद्धो, एवमेत्यवि सिज्झदि, किमट्ठविदियवारमावाधाउच्चदे? रण; जघा गाणा- . वरणादि समयपबद्धाणं बंधावत्यि वदिक्कताणं प्रोकड्डण-परपयडिसंकमादीहि वाघाभावपरुवणहं विदयवारमावाधा रिणदेसादो ।
पूर्वोक्त आवाधाकाल के भीतर विवक्षित किसी भी आयुकर्म की निक स्थिति में वाचा नहीं होती।
शंका-जिस प्रकार ज्ञानावरणादि कार्यों की आवाधा का प्ररूपण करनेवाले सूत्र से बाधा का अभाव सिद्ध है, उसी प्रकार यहां पर भी बाधा का अभाव सिद्ध होता है, फिर दूसरी वार "पावापा" सूत्र किसलिए कहा ?
समाधान नहीं, क्योंकि जिस प्रकार ज्ञानावरणादि के समयप्रवद्धों का वधावलि के व्यतीत हो जाने पर आकर्षण और परप्रकृतिसंक्रमण होफर चाचा होती है, उस प्रकार आयुकर्म में अपकर्पण और परप्रकृति संझम आदि के द्वारा वाधा का अभाव है - यह प्ररूपण करने के लिए दूसरी वार "आबाधा" सूत्र का निर्देश किया है।
___ तात्पर्य यह है कि ज्ञानावरणादि कर्मों का वन्ध होने पर वन्धावलि काल के बाद उसका अपकर्पण होकर आवाधाकाल को भरा भी जाता है और अन्य सजातीय कर्म में संझम भी होता है। वह स्थिति आयु कर्म में नहीं उत्पन्न होती, कारण कि एक आयुकर्म का दूसरे प्रायुकर्म में एक तो संझम नहीं होता, दूसरे भुज्यमान प्रायु के रहते हुए आगामी रूप में उदय में आनेवाली प्रायु का उदय पूर्व कोटि के विभाग के व्यतीत होने पर ही हो सकेगा, इसीलिए आगामी भव की आयु का वन्ध होने के वाद ही भुज्यमान अायु की आगामी भव सम्बन्धी प्रायु के वन्ध के समय, जितनी भुज्यमान आयु की निषेक स्थिति शेप है, उसके समाप्त होने पर ही उसका उदय होगा, यह निश्चित हो जाता है । इसलिए इस दृष्टि से विचार करने पर अकाल मरण नाम की कोई वस्तु नहीं है, यह निश्चित होता है। . यह तो कर्मशास्त्र के अनुसार एक हेतु है, जिससे समीक्षक द्वारा माने गये प्रेरक कारण का पूरी तरह से निषेध होता है।