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जिस कार्य के साथ अन्य द्रव्य की त्रिकाल वाह्य व्याप्ति होती है, उसमें सहकारी कारण या निमित्त कारण का असद्भूत व्यवहार किया जाता है।
चतुर्थ भाग की समीक्षा के आधार पर स्वयमेव पद का अर्थ :
पृ. ३१ (स.) में समीक्षक ने 'स्वयमेव' पद का जो अर्थ 'अपने रूप' किया है, उसमें उसका यह अभिप्राय प्रतीत होता है कि 'उपादान अपने कार्य को निमित्त के सहयोग से ही कर सकता है अन्यथा नहीं', किन्तु 'उपादान से कार्य होता है' यह निश्चयनय का कथन है, जो पर निरपेक्ष होने से उपादान स्वयं ही अपना कार्य करने में समर्थ है, इस अर्थ को सूचित करने के लिये ही प्रवचनसार गाथा १६६ में 'स्वयमेव' पद द्वारा व्यक्त किया गया है । निश्चयनय का लक्षण है :
स्वाश्रितो निश्चयनय: या अभेदानपचारतया वस्तु निश्चीयते इति निश्चयः ।
इन लक्षणों को ध्यान में लेने से यह स्पष्ट हो जाता है कि निश्चयनय से वस्तु की सिद्धि या प्राप्ति में उपचार को कोई स्थान नहीं है । उपचरित नय अर्थात् व्यवहारनय अवश्य ही पर सापेक्ष होता है, किन्तु निश्चयनय पर सापेक्ष नहीं होता, स्वाधित कथन का नाम ही निश्चयनय है ऐसा यहां समझना चाहिये, क्योंकि वह परनिरपेक्ष ही होता है । अतएव 'स्वयमेव' पद का अर्थ 'अपने आप ही' करना योग्य है, अन्य नहीं ।
पंचम भाग की समीक्षा के प्राधार पर उपचार शब्द का अर्थ :-पृ. ३१ (स.) के अनुसार समयसार गाथा १०५ में जो 'उपचार' शब्द पाया है, वह केवल 'अन्य ने अन्य का कार्य किया' या इसी प्रकार का जो प्रज्ञानियों का विकल्प होता है उसको ही सूचित करता है, परमार्थ को नहीं । अर्थात् वह विकल्प उपचार है, परमार्थ नहीं।
यदि समीक्षक को प्रयत्न करने पर भी प्रथम प्रश्न के उत्तर में 'उपचार' का अर्थ नहीं उपलब्ध हुआ तो यहां अर्थ दे रहे हैं :
सति निमित्त प्रयोजने च उपचारः प्रवर्तते । निमित्त या प्रयोजन के होने पर उपचार की प्रवृत्ति होती है।
इस विषय में अनेक स्थानों पर लिखा जा चुका है, इसलिये विशेष स्पष्टीकरण नहीं कर रहे हैं । नोंक-झोंक करना हमारा काम नहीं, इसका विचार तो उसे ही करना चाहिये जो उपचार कथन को भूतार्थ ही रखकर पाठकों को भ्रम की भूमिका में ला खड़ा करना चाहता है ।
जीव भूतार्य रूप से पदगलों का निमित्त कर्ता भी नहीं होता :-आगे इसी पृष्ठ में समीक्षक ने जीव को जो पुद्गल कर्मों का निमित्त कर्ता लिखा है, सो यहां उसे ऐसा लिखना चाहिये था कि जीव पुद्गल कर्मों का उपचार से निमित्त कर्ता है । जहां तथ्यों के आधार पर वस्तु का विचार किया जाता है, वहां नय विभाग को आधार बनाकर ही लिखा-पढ़ा जाना चाहिये ।
'मुह्यते' पद का अर्थ :- 'मुह्यत इति मोहनीयम्' इसका अर्थ जीव द्वार चूलिका ११ में "जिसके द्वारा मोहित हो वह मोहनीय कर्म है' यह किया गया है। उसे देखकर ही हमने अपने उत्तर