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सम्यग्दर्शन परिणाम से परिणत श्रात्मा सम्यग्दर्शन है । वह विशिष्ट ज्ञान परिणाम की उत्पत्ति का उपादान है, क्योंकि केवल पर्यायमात्र और केवल जीवादि द्रव्यमात्र उपादान नहीं हो सकता । जैसे कि कछुए के (असत् रूप) रोम आदि किसी के उपादान नहीं होते ।
इसप्रकार इतने विवेचन से यह सिद्ध हो जाता है कि प्रत्येक कार्य का ( जो कि प्रत्येक द्रव्य का प्रत्येक समय में होता है) नियत उपादान होता है और कार्यकाल में उसके नियत वाह्य निमित्त होते हैं । यह श्रागम परम्परा है । इसी आधार पर जिनागम में ईश्वरवाद का निषेध किया गया है, क्योंकि जिनागम के अनुसार सभी द्रव्य स्वतन्त्र हैं और उनके परिणाम भी स्वतन्त्र हैं । यही कारण है कि जिनागम में एक द्रव्य की विवक्षा में भी कर्ता का स्वरूप कर्म निरपेक्ष स्वतन्त्र माना गया है और इसी प्रकार कर्म का स्वरूप भी कर्तृ निरपेक्ष स्वतन्त्र माना गया है । केवल इनका व्यवहार परस्पर सापेक्ष अवश्य किया जाता है ।' जब कि जिनागम के अनुसार कार्य कारणभाव की यह व्यवस्था है, ऐसी अवस्था में कार्य परमार्थ से वाह्य निमित्त सापेक्ष माना जाय, यह किसी भी अवस्था में सम्भव नहीं है। तथा इसी प्रकार उपादान का स्वरूप उपादेय निरपेक्ष होता है और उपादेय का स्वरूप उपादान निरपेक्ष होता है । मात्र इनका व्यवहार परस्पर सापेक्ष अवश्य किया जाता है । श्रागम की इस व्यवस्था को ध्यान में रखने पर जिनागम में प्रेरक निमित्त कारण हो यह सिद्ध नहीं होता ।
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केवल शाब्दिक प्रयोग के ग्राधार पर कार्यकाल में
कार्यों की अपेक्षा बाह्य निमित्तों में भेद नहीं खानिया तत्त्वचर्चा में हमने इसे ( प्रेरक नाम के निमित्त को) आधार पर ही स्वीकार किया था । और इसीलिये इष्टोपदेग टीका के उसको ( प्रेरक निमित्त को) उदासीन निमित्त के समान उल्लिखित कर दिया था। इतना अवश्य है कि ग्रागम में प्रायोगिक और विलसा इन दो शब्दों का निमित्त कारणों के अर्थ में अवश्य प्रयोग हुआ है । जो बुद्धि निरपेक्ष दैव सापेक्ष कार्य होते हैं, उन्हें विस्रसा कार्य कहते हैं । यह आगम की व्यवस्था है । यथा -
iisfy द्विधा विस्साप्रयोगभेदात् ॥१०॥
धोsपि विध्यमश्नुते । कुतः ? विस्त्रसाप्रयोगभेदात् वैत्रसिकः प्रायोगिकश्चेति । [ तत्वार्थवर्तिक - ५ - सू-२४]
विसा व प्रयोग के भेद से बंध भी दो प्रकार का है (१०)
विस्रसा और प्रयोग के भेद से बंध भी द्विविधता
प्राप्त होता है । यथा - वैनसिक और
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प्रायोगिक |
यहां पुरुषार्थ निरपेक्ष के अर्थ में विस्रसा शब्द का प्रयोग हुआ है तथा जीव के मन-वचनकाय के संयोग को प्रयोग कहते हैं और प्रयोग पूर्वक होने वाले कार्यों को प्रायोगिक कहते हैं ।
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नहि कर्तृ स्वरूप कर्मापेक्ष कर्मस्वरूपं वा कथंपेक्षम्, उभयासत्वप्रसगात् ।
नापि कर्तृ व्यवहारः कर्मत्वव्यवहारो वा परस्परानपेक्ष: । ( ग्रष्टसहस्री का० ७५)