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और व्यतिरेक व्याप्तियों का सद्भाव जिन निमित्तों में पाया जावे, वे उदासीन निमित्त कहलाने के योग्य हैं। यतः पहिले प्रकार की अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियों का सद्भाव प्रेरक निमित्तों में पाया जाता है, अतः उनके (प्रेरक निमित्तों के) बल पर कार्य आगे-पीछे कभी भी किया जा सकता है और यत दूसरे प्रकार की अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियों का सद्भाव उदासीन निमित्तों में पाया जाता है, अतः उनके (उदासीन निमित्तों के) बल पर कार्य आगे-पीछे तो नहीं किया जा सकता, फिर भी उनका सहयोग उपादान की कार्यरूप परिणति में अवश्य रहा है।" (स. पृ.-१३)
आगे समीक्षक ने अपने दोनों प्रकार के लक्षणों के समर्थन में क्रमशः रेल के इन्जिन और रेल पटरी के उदाहरण उपस्थित किये हैं तथा हमारे द्वारा किये गये दोनों प्रकार के लक्षणों का इस आधार पर निषेध किया है कि उक्त प्रकार के लक्षणों के आधार से दोनों ही निमित्त कार्योत्पत्ति में अकिंचित्कर सिद्ध होते है । जबकि पूर्व पक्ष दोनों ही निमित्तों को कार्योत्पत्ति में पूर्वोक्त प्रकार से कार्यकारी मानता है। (स पृ-१४)
हमारे द्वारा दिए गये लक्षणों के खण्डन में शंकाकार की युक्ति यह है कि उन्हें कार्योत्पत्ति मैं अकिंचित्कर माना जाता है तो उस काल में उपस्थित अन्य वस्तुओं को भी निमित्त मानने का प्रसंग आ जावेगा । साथ ही समीक्षक द्वारा अपने लक्षणों के समर्थन में यह युक्ति दी है कि दोनों प्रकार के निमित्त नपादान की कार्य रूप परिणति में अपने-अपने ढंग से सहायक होने रूप से यदि कार्यकारी मान लिया जाता है तो इससे कार्योत्पत्ति के अवसर पर उनकी निमित्त रूप से उपस्थिति युक्तियुक्त हो जाती है । साथ ही उनकी कार्य के साथ अपने-अपने से अन्वय व्यतिरेक व्याप्तियां भी बन जाती हैं।"
आगे समीक्षक ने प्रमेयरत्नमाला का उद्धरण उपस्थित करके उपादान के कार्य के प्रति निमित्तों की सार्थकता सिद्ध की है । साथ ही वह निचोड़ को सूचित करते हुए लिखता है ... तात्पर्य यह है कि जैनागम में कार्योत्पत्ति की व्यवस्था इस प्रकार स्वीकृत की गयी है कि "उपादान कार्यरूप परिणति होने की स्वाभाविक योग्यता विशिष्ट पदार्थ तो कार्यरूप परिणत होता है, परन्तु वह तभी कार्यरूप परिणत होता है, जब उसे प्रेरक और अप्रेरक (उदासीन) निमित्तों का सहयोग प्राप्त हो जाता है। उसको प्रेरक निमित्तों का सहयोग प्रेरकता के रूप में और अप्रेरक (उदासीन) निमित्तों का सहयोग अप्रेरकता (उदासीनता) के रूप में मिला करता है । इस तरह उपादान कारण, प्रेरक निमित्त कारण और अप्रेरक (उदासीन) निमित्त कारण- इन तीनों के रूप में कारण सामग्री के मिलने पर ही कार्योत्पत्ति (उपादान की कार्यरूप परिणति) होती है।" (स. पृ.-१४)
यहाँ तक हमने यथासम्भव समीक्षक के अभिमत को दिखलाने का प्रयत्न किया है। आगे उसे ध्यान में रखकर विचार किया जाता है - .. यहाँ समीक्षक ने स्वकल्पित बाह्य निमित्त के दो लक्षण दिये हैं (स. पृ.-१३) वस्तुतः विवक्षित कार्य के साथ जिस बाह्य पदार्थ की त्रिकाल व्याप्ति होती है, उसमें आगम के अनुसार निमित्त व्यवहार किया जाता है और उस कार्य को नैमित्तिक कहा जाता है, इसी बात को ध्यान में रखकर स्वामी समन्तभद्र ने स्वयंभूस्त्रोत में इस सिद्धान्त की घोषणा की है ~ . .
बाह्येतरोपाधिसमप्रतेयं कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभावः ।। . .. नवान्यया मोक्षविधिश्च पुसा तेनाभिवन्द्यस्त्वमषिर्बुधानाम् ॥६॥ .