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शुभ परिणामोंसे रचा गया योग शुभयोग है और अशुभ परिणामों से रचा गया योग अशुभ योग है । इसका विशेष खुलासा तत्वार्थवार्तिक-इसी अध्यायके तीसरे सूत्रसे किया गया है। इसलिए जिज्ञासुओं को वहां से जान लेना चाहिये।
पृष्ठ ३१७ (वरया) में मीमांसक ने १०वें गुणस्थान तक जो प्रारम्भी पापाचरण का उल्लेख किया है, वह उसका ऐसा लिखना युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि ७ वें गुणस्थान में धर्मव्यानकी पूर्णता और पाठवें से शुक्लध्यान का प्रारम्भ हो जाता है । जैसा कि तत्वार्थवार्तिक के अ. ६ सू. ३६ के वार्तिक और उसके भाष्य से ज्ञात होता -
___धर्म्यमप्रमत्तसंयतस्यैवेति तन्न.किं कारणं ? पूर्वेषां विनिवृत्तिप्रसंगात् । असंयत सम्यग्दृष्टि संयतासंयतप्रमत्तसंयतानामपिधर्मध्यानमिप्यते, सम्यक्त्वप्रभावत्वात् । इति धयंमप्रमत्तस्यैवेत्युच्येत तर्हि
तेषां निवृत्तिः प्रसज्येत । " धर्म्यध्यान अप्रमत्त संयत के ही होता है, ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर ४ थे आदि गुणस्थानों में धर्मध्यान होता है, इसका निषेध हो जाता है ।
शंका-कोई कहता है कि धर्मध्यान अप्रमत्तसंयत के ही होता है।
समाधान-यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर ४थे आदि गुणस्थानों में धर्मध्यान होता है, उसका निषेध हो जाता है। असंयत सम्यग्दृप्टि, संयतासंयत और प्रमत्तसंयत जीवों के भी सम्यग्दर्शन के प्रभावसे धर्म्यध्यान कहा जाता है । यदि धबध्यान अप्रमत्तसंयतके ही कहा जावे . तो उनके धर्मघ्यान होने का निषेध हो जाता है।
___ इसलिए वे आदि गुणस्थानों में प्रारम्भी पापाचरणरूप कार्य नहीं हो सकते यह स्पष्ट है, क्योंकि वे निर्विकल्परूप धर्म्यध्यान और शुक्लध्यानके गुणस्थान हैं । वहां जो संज्वलन कपाय का मंद, मंदतर और मंदतम उदय पाया जाता है, वह अवुद्धिपूर्वक ही आगममें स्वीकार किया गया है।
यद्यपि धवला पु. १३ में १०३ गुणस्थान तक धम्यंध्यान स्वीकार किया गया है, क्योंकि वहां तक संज्वलन कषायका उदय पाया जाने से वहाँ तक कपायका सद्भाव माना गया है, परन्तु वहाँ उपयोगकी मुख्यता होने से उपयोग में कषाय का उदय गौरण हो जाने के कारण तथा सहज स्वभावभूत आत्माका अनुभव होने के कारण आगम में वहां शुक्लध्यानकी ही मुख्यता स्वीकार की गयी है, धर्म्यध्यानकी नहीं। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुये तत्वार्थसूत्र अ. ६ सू. ३७ की टीका में लिखा है
वक्ष्यमाणेषुशुक्लध्यानविकल्पेषु प्राद्ये शुक्लध्याने पूर्वविदो भवतः श्रुतकेवलिन इत्यर्थः । च शब्देन धर्म्यमपि समुच्चीयते । तत्र व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिरिति श्रेण्यारोहणात् प्राग धर्म्यम्, श्रेण्यों: शुक्ले इति व्याख्यायते ।
(1)
यहाँ पर विवक्षा से 7वें में धर्मध्यान लिखा है, जबकि 42 से 7वें तक होता है।