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________________ अपि च धर्मः अगुरुलघुभिर्गुणैरगुरुलघुत्वाभिधानस्य स्वरूपप्रतिष्ठत्वनिबंधनस्य स्वभावस्याविभागपरिच्छेदैः प्रतिसमयसंभवत्षट्स्थानपतितवृद्धिहानिभिः सदा परिणतत्वादुत्पादव्ययवत्वेपि स्वरूपादप्रच्यवनान्नित्यः ।। और धर्मद्रव्य अगुस्लघुगुणोंरूपसे अर्थात् अगुरुलघुत्व नाम का जो. स्वरूप प्रतिष्ठितका कारणरूप स्वभाव है, उसके अविभाग प्रतिच्छेदोंरूपसे जो कि प्रति समय होनेवाली षट्स्थान पतित वृद्धि हानिवाले अनन्त हैं, उन रूपसे सदैव परिणमन करनेके कारण उत्पाद व्यय वाला है, तथापि स्वरूप से च्युत नहीं होता, इसलिये नित्य है ।। __ आशा है, इतने कथन से मीमांसक स्वप्रत्यय और स्व-पर प्रत्यय पर्याय के विषयमें जो अपनी कल्पित मान्यता बनाये हुये है, उसमें संसोधन कर लेगा। पृष्ठ २८६ (वरया) में पुनः उसने स्व-पर प्रत्यय पर्यायका उल्लेख करते हुये जो पर पदार्थों की कारणताका समर्थन किया है सो यहां प्रश्न यह है कि वह कारणता निश्चय से उसने मानी है या असदभूत व्यवहार से । यदि उपचरित व्यवहार से वह विभाग पर्याय में कारणंता का समर्थन करता है तो इसमें आगमसे कोई बाधा नहीं आती, क्योंकि उपचरित व्यवहार से कार्यमें पर पदार्थों की निमित्तता आगममें स्वीकार की ही है। इतना अवश्य है कि आगम में सर्वत्र विभाव पर्याय . को ही स्व-पर प्रत्यय स्वीकार किया है । स्वभाव पर्याय तो पर निरपेक्ष अर्थात् स्वप्रत्ययं ही होती है, जो जीवकी अपेक्षा वाह्य संयोगमें अहंकार और ममकार भावके यथासम्भव छोड़ने पर ही उत्पन्न होती हैं। पृ. २६० (वरैया) में उसने अहंकार और ममकारमें जो पर द्रव्य के अवलम्बन की बात लिखी है, सो इस विषय में इतना ही संकेत करना पर्याप्त है कि परद्रव्य अहंकार और मसकारको उत्पन्न नहीं करता, किन्तु जीव स्वयं ही अपने अज्ञान के कारण परद्रव्यको निमित्त कर स्वयं में अहंकार ओर ममकार को उत्पन्न कर लेता है, इसलिए जीव स्वयं ही मिथ्यात्वादि अज्ञानके कारण अहंकार भमकारका कर्ता बनता है, परद्रव्य नहीं । वह तो उनके होने में उपचारसे निमित्तमात्र है। पृष्ठ २९१ (वरैया) में मीमांसक ने घटादि निर्माणमें किये गये अपने व्यापारको क्या मूर्खता का कार्य माना जावे, ऐसी जो पृच्छा की है, सो हमारा इस विषय में इतना लिखना ही पर्याप्त है कि जो कोई परद्रव्यकी क्रियाको "मैं स्वयं कर सकता हूँ"-यदि ऐसा मानता है तो उसका ऐसा मानना मूर्खता अर्थात् अज्ञान के सिवाय और क्या हो सकता है ? इस विपयको विशेषरूपसे समझने के लिए समयासार गाथा १०० प्रात्मख्याति टीका पर तथा पूरे कर्ताकर्म अधिकार पर दृष्टिपात करना उचित होगा । उससे पूरी वस्तु स्थिति स्पष्ट हो जायेगी। पृष्ठ २९३ (बरया) में मीमांसकने जो जैनतत्व मीमांसा को लेकर निमित्त-नमित्तक भाव रूप कार्यकारणभावसंबंधी विशेष चर्चा की है, सो इस संबंधमें हमें जनतत्वमीमांसा जैसे ग्रन्थकी रचना करने का भाव क्यों हुआ- यह मीमांसाकसे छिपी हुई बात नहीं है । जैनतत्व मीमांसमें प्रारम्भ में हमने जो मंगलाचरण किया है, उसमें भी हमने यह . स्पष्ट कर दिया था कि मोक्षमार्गको ध्यान में रखकर इसकी रचना की जा रही है।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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