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सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः ।
यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धति ॥ ३ ॥ धर्म के ईश्वर अर्थात् तीर्थकर देव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से परिणत जीव को धर्म कहते हैं । अतः इनकी पूर्णता का नाम ही मोक्ष है। तथा इनसे उलटे मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र से परिणत जीव का नाम संसार है . इसलिये जीव और. पुद्गल के मिलावट को संसार पहना मात्र उपचार को छोड़कर और कुछ नहीं है । और वह भी जब इन दोनों का निमित्त-नैमित्तिक भाव से परस्पर संयोग होता है, तब ही इनकी मिलावट अर्थात् संयोगको उपचार से संसार कहा जाता है, क्योंकि वह वास्तविक न होनेसे उपचरित ही माना गया है । कोई भी द्रव्य अपने स्वरूपको छोड़कर पररूप कभी होता ही नहीं, इसलिये मिलावट कहना मात्र व्यवहार ही है।
आगे इसी पृष्ठ में मीमांसकने प्रत्येक द्रव्यके परिणमन स्वभाववाले होने से अपनी स्वतत्रता के आधार पर प्रत्येक समय के परिणमन को जो मात्र स्वप्रत्यय सिद्ध किया है, सो उसका ऐसा लिखना भी यथार्थ नहीं है, क्योंकि जीव द्रव्यकी स्वतंत्रता स्वावलम्बन के आधार पर ही बनती है और उसी आधार पर उसका सम्यग्दर्शनादिरूप स्वप्रत्यय परिणमन सिद्ध होता है। इस प्रकार के सम्यग्दर्शनादिरूप जितने भी परिणमन होते हैं, वे आगममें स्वप्रत्यय ही माने गये हैं तथा जीवके संसार की परिपाटीरूप जितने भी परिणमन होते हैं या पुद्गलके स्कंधरूप जितने भी परिणमन होते हैं, वे सब आगम में स्व-पर प्रत्यय परिणमन माने गये हैं तथा उन का नाम ही विभाव पर्याय है । इसके लिये नियमसार की इस गाथा पर दृष्टिपात कीजिये :
अण्णरिणरावेक्खो जो परिणामो ता सहावपज्जानो।
खंघसरूवेण पणो परिणामो सो विहावपज्जाप्रो.॥ २८ ॥ जो अन्य निरपेक्ष परिणाम होता है वही स्वप्रत्यय स्वभाव पर्याय है और जो पुद्गल की स्कंधरूम पर्याय होती है वह स्व-पर प्रत्यय विभाव पर्याय है ।
यह पुद्गल की स्वप्रत्यय और स्व-पर प्रत्यय पर्याय का लक्षण है। जीव द्रव्यकी विवक्षा में भी स्वप्रत्यय पर्याय और स्व-पर प्रत्यय पर्याय का यही लक्षण है। जैसा कि नियमसार की गाथा १४ से स्पष्ट ज्ञात होता है । वहाँ लिखा है :
पज्जाओ दुवियप्पो सपरावेक्खो य रिणरवेक्खो। जीवकी पर्याय दो प्रकार की होती हैं-स्व-पर सापेक्ष पर्याय और पर निरपेक्ष पर्याय । इन्हें स्पष्ट करते हुये नियमसार गाथा १५ में लिखा है :. रणरणारयतिरियसुरा पज्जाया ते विभावमिदि भरिणदा।
कम्मोपाधिविवज्जयपज्जाया ते सहावमिदि भरिणदा। __ मनुष्य, नारक, तिर्यच और देव-ये चारों विभाव पर्याय कही गयी हैं, क्योंकि इनके होने में परावलम्बन के पूर्व कर्मरूप उपाधिको निमित्तता स्वीकार की गयी है तथा स्वावलम्बन