________________
[ २५
इस पर कोई भव्य जीव पूछता है कि यदि सामान्य से सम्यग्दर्शन का यह लक्षण है तो वह सम्यग्दर्शन के दोनों (व्यवहार सम्यग्दर्शन और निश्चय सम्यग्दर्शन) भेदों में उपलब्ध होना चाहिये। इस पर पं. प्रवर आशाधर जी कहते हैं कि हमने जो तत्त्वरुचि को पहले सम्यग्दर्शन कहा है, वह उपचार से ही कहा है, क्योंकि उपशान्त कपाय आदि गुणस्थानों में मोह का प्रभाव रहता है। वहां यह उपचार लागू नहीं होता, इसलिये प्रागमं में व्यवहार सम्यक्त्व को उपचार से सम्यग्दर्शन स्वीकार किया गया है। इस विषय का पोपक उद्धरण इस प्रकार है :
न पुनः रुचिः, तस्याः क्षीणमोहेष्वभावात् । (वही) इसे और भी स्पष्ट करते हुए पं. प्रवर आशाधर जी प्र. 2 श्लोक 13 की स्वोपज्ञ टीका में लिखते हैं :
तत्त्वरुचि: तत्त्वं जीवादिवस्तुयाथात्म्यं तस्य रुचि: श्रद्धानं विपरीताभिनिवेशविविक्तमात्मस्वरुप नत्विच्छालक्षणम्, तस्योपशान्तकषायादिषु मुक्तात्मसुवासंभावत् ।
तत्त्व अर्थात् परापर वस्तु की यथार्थता की रुचि श्रद्धान् सम्यग्दर्शन है जो विपरीत अभिनिवेश से रहित आत्मा का स्वरूप है । यहां रुचि का अर्थ इच्छा नहीं करना, क्योकि इच्छा उपशान्तकषाय आदि गुणस्थानों में और मुक्तात्मामों में नहीं पाई जाती।
(3) अब शुभभाव तथा अशुभाव आस्रव है इसे पं.प्र. पाशाधर जी ने स्पष्ट करते हुए लिखा है :भावानयो मिथ्यादर्शनादिः सुदर्शनादि: सम्यग्दर्शज्ञानसंयमादि: गुप्त्यादिः ।
(अ. प. अ. 2 श्लोक 39 स्वोपज्ञ टीका) मिथ्यादर्शन आदि तथा सम्यग्दर्शन आदि अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और संयम आदि साथ ही गुप्ति आदि भावास्रव हैं। इनमें मिथ्यादर्शन प्रादि अशुभ भावास्रव हैं और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, संयम आदि तथा गुप्ति आदि शुभभावास्रव हैं । यद्यपि मूल में इनके ये भेद नहीं बतलाये हैं पर ये स्वयं फलित हो जाते हैं। यहां पानव के भेद में व्यवहार सम्यग्यर्शनादि को शुभास्रव ही स्वीकार किया है। इससे स्पष्ट है निश्चिय सम्यग्यर्शनादि ही सच्चा मोक्षमार्ग हैं तथा व्यवहार मोक्षमार्ग सच्चा मोक्षमार्ग तो नही हैं । फिर उसका निमित्त और सहचर होने से उसे मोक्षमार्ग कहा जाता है वह ऐसा नहीं है । फिर उसका अन्वय जहां तक शुभभावरूप कषाय है, वहीं तक बनता है। मागे निश्चिय मोक्षमार्ग ही अकेला रहता है।
इस कथन से यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि निश्चय सम्यग्दर्शन आदि आत्मा की स्वभावपरिणति है और व्यवहार सम्यग्दर्शन प्रादि प्रात्मा की स्वभात्रपरिणति तो नहीं है, मात्र बाह्य व्याप्तिवश या काल प्रत्यासत्तिवश व्यवहारनय की अपेक्षा सहचर सम्बन्ध होने से संसार दशा मे बाह्यनिमित्तपने की अपेक्षा व्यवहार.सम्यग्दर्शन प्रादि कहे जाते हैं। तात्पर्य यह है कि जिस प्रात्मा में निश्चय सम्यग्दर्शनादि प्रकट होते हैं स्वभावतः उसके जीवादि पदार्थों में श्रद्धा और उनका ज्ञान होता